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सिद्ध साहित्य का मूल स्रोत
121 दोहा' की स्पष्ट प्रतिध्वनि 'दोहाकोश' में सुनाई देती है। भाषा के कलेवर में थोड़ा अन्तर होते हुए भी भाव का स्वरूप एक ही है। रामसिंह कहते हैं कि जिसका जीते जी पंचेन्द्रियों सहित मन भर गया उसको मुक्त जानना चाहिए। उसने निर्वाण के पद को पा लिया। ठीक इसीकी प्रतिध्वनि कवीर के उस पद में मिलती है जहाँ वे वास्तविक शाहंशाह को परिभाषा देते हुए कहते हैं कि जिसकी चाह चली गई, चिता मिट गई और जिसका मन बेपरवाह हो गया तथा जिसको संसार में अब कुछ नहीं चाहिए, वही शाहंशाह है ।२ रामसिंह कहते हैं कि न तोषकर, न रोषकर, न क्रोधकर। क्रोध से धर्म का नाश होता है। धर्म नष्ट होने से नरकगति होती है। इस प्रकार मनुष्य जन्म ही गया । कबीर का विचार भी कुछ ऐसा ही है। वे कहते हैं कि मनुष्य करोड़ों कर्म जीवन में करे पर क्रोध की लार में वे सारे कर्म बह जाते हैं। जीवन में किया कराया सब कुछ अहंकार की आँधी में लुप्त हो जाता है। मुनि रामसिंह का विचार है कि संत निरंजन उस छोटे से देवालय में बसता है जहाँ बालका भी प्रवेश नहीं हो सकता। अतः साधक निर्मल होकर उसे वहीं ढूँढ़े।" सरह भी तो अपने मन को वहीं विश्राम करने की सलाह देते हैं जहाँ न तो पवन का संचार हो और न रवि-शशि का प्रवेश ।६ दोनों संतों के उद्देश्य की समानता को देखकर लगता है कि सरह ने रामसिंह से प्रेरणा ली है। मुनि रामसिंह उपदेश देते हैं कि जिस प्रकार नमक पानी में मिलकर एक हो जाता है उसी प्रकार चित्त को विलीन हो जाना चाहिये। तभी समरस की प्राप्ति होती है। यही सर्वोत्तम समाधि है। लवण और पानी वाला यह दृष्टान्त बाद के साहित्य में काफी प्रचलित हुआ। सरहपा कहते हैं कि जिस प्रकार नमक पानी में विलीन हो जाता है उसी प्रकार यदि साधक का चित्त विलीन हो जाय तो अपने पराये का भेदभाव जाता रहता है। इसके बाद और कौन-सी समाधि होगी ?' दोनों उक्तियों को एक साथ रखकर देखने पर स्पष्ट हो जाता है कि
१. पाहुड़दोहा-१२३; पृ० ३६. २. कबीर-वचनावली-५७९; पृ० १४३. ३. पाहुड़दोहा-९३; पृ० २८. ४. कबीर वचनावली-४९१; पृ० १३५.
हत्थ अहुठ्ठहं देवली बालहं णाहि पवेसु ।। संतु णिरंजणु तहिं वसइ णिम्मलु होइ गवेसु ॥
-पाहुड़दोहा ९४; पृ० २८. ६. दोहाकोश-सं०-राहुल सांकृत्यायन-४९, पृ० १२. ७. जिम लोणु विलिज्जइ पाणियहं तिम जइ चित्तु विलिज्ज ।
समरसि हुवइ जीवडा काई समाहि करिज्ज ॥
-पाहुड़दोहा-१७६; पृ० ५४ ८. दोहाकोश-सं०-राहुल सांकृत्यायन-४६; पृ० १२.
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