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________________ 128 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. 2 रामसिंह के विचारों की पुनरावृत्ति मात्र सरह कर रहे हैं। हाँ, सही है कि उनके कहने का ढंग अपना है। नमक और पानी के उदाहरण का सहारा लेते हुए सरहपा एक दूसरी जगह कहते हैं कि साधक के चित्त को महासुख में उसी प्रकार प्रविष्ट हो जाना चाहिये जिस प्रकार नमक पानी में विलीन हो जाता है।' कुछ ऐसे उदाहरण, उपमान और प्रतीक हैं जो साधकों को बड़े प्रिय रहे हैं। प्रत्येक युग में संतों और विचारकों ने कुछ ऐसे उदाहरण, उपमान और प्रतीक अपनाये हैं जिनकी एक परंपरा-सी बन गई और वाद के विचारकों ने भी उन्हें अपना लिया। लवण और पानी का उदाहरण भी कुछ ऐसा ही है। इसी उदाहरण के द्वारा काह्नपा लोगों को सहजसाधना का उपदेश देते हैं। उनका कहना है कि जिस प्रकार लवण पानी में घुलमिलकर एक हो जाता है उसी प्रकार साधक अपने चित्त को अपने चित्त को अपनी प्रेयसी के साथ मिलाकर एक कर ले। इसी से तत्क्षण समरसता की प्राप्ति होती है ।२ काह्नपा का यह विचार मुनि रामसिंह के विचार (पाहुड़-१७६) से हबह मिलता है। रामसिंह निश्चित रूप से काह्नपा के पूर्ववर्ती थे और इस प्रकार काह्नपा अपने पूर्व की इस परंपरा से प्रेरणा लेते दीख पड़ते हैं। साधक तीर्थ, व्रत आदि के चक्कर में तभी तक रहता है जब तक उसे वास्तविक ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो जाती है। सच्चा ज्ञान मिल जाने पर वह यह जान लेता है कि परमात्म-तत्त्व उसके शरीर के भीतर ही है और उसकी प्राप्ति के लिए कहीं भटकने की आवश्यकता नहीं है। किन्तु यह ज्ञान विरले लोगों को ही मिल पाता है और यही कारण है कि साधारणतया लोग तीर्थ और देवालयों की खाक छानते रहते हैं। मुनि रामसिंह ने भी लोगों के मिथ्याज्ञान को पहचाना था। तभी तो वे कहते हैं कि मूर्ख मनुष्य उन देवालयों को तो देखता है जो लोगों के द्वारा बनाए गए हैं, किन्तु अपनी देह नहीं देखता जहाँ संत शिव स्थित है। देहरूपी देवालय में जो शिव निवास करता है उसे न देखकर लोग देवालय में बढ़ते फिरते हैं। उन्हें हँसी इस वात के लिये आती है कि साधक सिद्ध से भीख मँगवाता है तभी तो देह को इधर-उधर नचाता फिरता है। साधक परमतत्त्व को खोजने के लिए वन, देवालय, तीर्थ और आकाश में चक्कर लगाता है पर उसे मिला क्या ? इस भ्रमण में उसे केवल भेड़िये और पशुओं से मुलाकात हुई। इतना ही नहीं, अक्षरारूढ और स्याहीमिश्रित ग्रन्थों १. दोहाकोश--सं०-डॉ. बागची-२, पृ० ५. २. वही-३२, पृ० २७. ३. मूढा जो वइ देवलई लोयहिं जाइं कियाई । देह ण पिच्छइ अप्पणिय जहिं रािउ संतु ठियाई॥ -पाहुड दोहा—१८०, पृ० ५४. ४. वही-१८६, पृ० ५६. ५. वही-१८७, पृ० ५६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522602
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG C Chaudhary
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1974
Total Pages342
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size7 MB
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