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सिद्ध साहित्य का मूल स्रोत डम्बरों के ऊपर निर्मम प्रहार कर रहे थे और उधर 'सावयधम्म दोहा', 'पाहुड़दोहा',२ 'परमात्म-प्रकाश' और 'योगसार'४ जैसे ग्रंथों की रचना हो रही थी। मुनि रामसिंह आदि जैन साधु अनेक सिद्धों के लिए पथ-प्रदर्शन का काम करते हैं। इन अपभ्रंश ग्रंथों ने सिद्ध साहित्य के लिए पृष्ठभूमि का काम किया है।
सिद्धों और जैन मुनियों के विचारों में तो अद्भुत साम्य है ही, उनकी रचनाओं के आकार-प्रकार तथा उद्देश्य भी प्रायः एक ही हैं। दो भिन्न धर्मों के अनुयायी होने पर भी उनके उद्गारों और रचना की इस आश्चर्यजनक समानता को देखने पर लगता है कि दोनों एक ही मूल स्रोत से प्रेरणा ग्रहण कर रहे हैं । पाहुड़दोहा में मुनि रामसिंह कहते हैं कि -- ''हे पंडितों में श्रेष्ठ पंडित ! तूने कण (सार पदार्थ) को छोड़ कर तुष को कुटा है। तू ग्रंथ और उसके अर्थ में संतुष्ट है, किन्तु परमार्थ को नहीं जानता, इसलिए तू मूर्ख है। जो शब्दाडंबर का ही गर्व करते हैं वे कारण को नहीं जानते। वे वंश विहीन डोम के समान दूसरों के हाथ मलते हैं (सेवा करते हैं) । हे मूर्ख ! बहुत पढ़ने से क्या ? ज्ञान तिलिंग (अग्निकण) को सीख, जो प्रज्वलित होने पर पुण्य और पाप को क्षण मात्र में जला डालती है। सभी सिद्धत्व के लिए तड़फड़ाते हैं पर सिद्धत्व चित्त के निर्मल होने से ही मिल सकता है। रामसिंह ने पंडित को इसलिए फटकारा कि वह कण को ग्रहण करने की अपेक्षा जीवन भर तुष कूटता ही रह गया। उधर सिद्धों के सिरमौर सरहपा को इस बात के लिए दुःख है कि मूर्ख मनुष्य आत्मा से परमात्मा का मिलन न करा सका और न आवागमन की जंजीर को ही वह तोड़ सका। उसका सारा जोवन तुष कूटते वीत गया, चावल कभी हाथ
१. डा० हीरालाल जैन द्वारा संपादित, अम्बादास बावरे दिगम्बर जैन ग्रंथमाला,
सं०, २, १९३२. २. वही, सन् १९३३. ३. रायचंद्र शास्त्रमाला, बंबई से प्रकाशित, सन् १९१६. ४. माणिकचंद्र ग्रंथमाला, संख्या - २१, बंबई से प्रकाशित, १९२२. पंडिय पंडिय पंडिया कणु छांडिवि तुस कंडिया। अत्थे गंथे तुठ्ठो सि परमत्थु ण जाणहि मूढो सि ॥ अक्खरडेहिं जि गम्विया कारणु ते ण मुणंति । वंस विहत्था डोम जिम परहत्थडा घुणंति ॥ णाण तिडिक्की सिक्खि बढकि पढियई बहुएण । जा संधुक्को णिड्डहइ पुण्णु वि पाउ खणेण ॥ सयलु वि कोवि तडफडइ सिद्धत्तणहु तणेण । सिद्धत्तणु परि पावियइ चित्तहं णिम्मलएण ॥
-पाहुड़ दोहा-८५-८८; पृ० २६.
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