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VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. 2
कहा है । इस पर से यह जिज्ञासा होना स्वाभाविक है कि यह संतकम्मपाहुड नामक ग्रन्थ कौन है ?
डा० हीरालाल जी का विचार है कि यहाँ स्पष्टतः कषायपहुड के साथ सत्कर्मपाहुड से प्रस्तुत समस्त षट्खण्डागम से ही प्रयोजन हो सकता है क्योंकि पूर्वो की रचना में चौवीस अनुयोगद्वारों का नाम महाकर्मप्रकृतिपाहुड है । महाकर्मप्रकृति और सत्कर्मसज्ञायें एक ही अर्थ की द्योतक हैं । अतः सिद्ध होता है कि इस समस्त षट्खण्डागम का नाम सत्कर्मप्राभृत है । और चूँकि इसका बहुभाग धवला टीका में ग्रथित है अतः समस्त धवला टीका को भी सत्कर्म - प्राभृत कहना अनुचित नहीं, इत्यादि ।
हम ऊपर लिख आये हैं कि षट्खण्डागम के प्रथम भाग की प्रस्तावना लिखते समय महाबन्ध प्रकाश में नहीं आया था। डा० साहब ने स्वयं लिखा है'दुर्भाग्यतः महाबन्ध ( महाघवल ) हमें उपलब्ध नहीं है । इस कारण महाबन्ध और सत्कर्म नाम की उलझन को सुलझाना कठिन प्रतीत होता है ।
डा० सा० को उस समय मुडविद्री से एक परिचय प्राप्त हुआ जिसे महाबन्ध का परिचय समझ लिया गया और इस तरह महाबन्ध को भी सत्कर्म मान लिया गया ।
इस समस्या पर प्रकाश डालने के लिये हमें इन्द्रनन्दि के श्रुतावतार को भी देखना होगा । उन्होंने ही सर्वप्रथम अपने श्रुतावतार में षट्खण्डागम नाम दिया है तथा उस पर रची गई व्याख्यानों का कालक्रम से विवरण दिया है ।
इन्द्रनन्दि ने लिखा है कि भूतवलि ने पाँच खण्डों की रचना के पश्चात् तीस हजार ग्रन्थ प्रमाण महाबन्ध नामक छठा खण्ड रचा । उन पाँच खण्डों के नाम हैं- जीव स्थान, क्षुल्लक बन्ध, बन्ध स्वामित्व, वेदना और वर्गणा । इन पर अनेक आचार्यों ने टीकाएँ रचीं । वीरसेनाचार्य से पहले अन्तिम टीकाकार वप्पदेव गुरु हुए । उन्होंने छः खण्डों में से महाबन्ध को तो अलग कर दिया और उसके स्थान पर पाँच खण्डों में व्याख्या प्रज्ञप्ति नामक छठे खण्ड को मिलाकर छह खण्ड निष्पन्न किये । इस तरह निष्पन्न हुए छः खण्डों पर तथा कषाय प्राभृत पर साठ हजार ग्रन्थ प्रमाण पुरातन व्याख्या लिखी तथा महाबन्ध पर पाँच अधिक आठ हजार ग्रन्थ प्रमाण व्याख्या लिखी । यथा
अपनीय महावन्धं षट् खण्डाच्छेष पञ्च खण्डे तु । व्याख्याप्रज्ञप्ति च षष्ठं खण्डं ततः संक्षिप्य ॥१७४॥ षण्णां खण्डानामिति निष्पन्नानां तथा कषायाख्य | प्राभृतकस्य च षष्टिसहस्रग्रन्थप्रमाणयुताम् ।।१७५ ।। व्यलिखत् प्राकृतभाषारूपां सम्यक् पुरातनव्याख्याम् । अष्ट सहस्रग्रन्थां व्याख्यां पञ्चाधिकां महावन्धे ।। १७६ ।।
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