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________________ संतकम्मपाहुड और छक्खंडागम 119 इसके पश्चात् आचार्य वीरसेन ने चित्रकूटवासी एलाचार्य से सकल सिद्धान्त का अध्ययन करके उपरितम निबन्धन आदि आठ अधिकारों को लिख लिया और चित्रकूट से प्राकर वाट ग्राम में आनतेन्द्र-कृत जिनालय में ठहरे और व्याख्याप्रज्ञप्ति को प्राप्त करके उपरितम निबन्धनादि अट्ठारह अधिकारों से सतकर्म नामक छठे खण्ड की रचना करके और उसे पूर्व पाँच खण्डों में मिलाकर छः खण्ड किये फिर उस पर ७२ हजार श्लोक प्रमाण धवला टीका रची । यथा काले गते कियत्यपि ततः पुनश्चित्रकूटपुरवासी । श्रीमाने लाचार्यो बभूव सिद्धान्ततत्त्वज्ञः ।।१७७।। तस्य समीपे सकलं सिद्धान्तमधीत्य वीरसेनगुरुः । उपरितमनिबंधनाद्यधिकारानष्ट च लिलेख ।।१७८ ।। आगत्य चित्रकूटात्ततः स भगवान् गुरोरनुज्ञानात् । वाटग्रामे चात्राऽऽनतेन्द्र कृत जिनगृहे स्थित्वा ।।१७९॥ व्याख्याप्रज्ञप्तिमवाप्य पूर्व षट्खण्डतस्ततस्तस्मिन् । उपरितमबंधनाद्यधिकारै रष्टादश विकल्पैः ॥१८०॥ सत्कर्मनामधेयं षष्ठं खण्डं विधाय संक्षिप्य । इति षण्णां खण्डानां ग्रंथसहस्रैर्द्वसप्तत्या ।।१८१॥ प्राकृत संस्कृत मिश्रां टीकां विलिख्य धवलाख्याम् । इन्द्रनंदि के उक्त कथन से प्रकट होता है कि वप्पदेव ने छः खण्डों में से महाबन्ध को पृथक् करके शेष पांच खण्डों में व्याख्याप्रज्ञप्ति नामक छठे खण्ड को मिलाकर छः खण्ड बनाये थे और फिर उन पर टीका रची थी । इसी तरह वीरसेन स्वामी ने व्याख्या प्रज्ञप्ति को प्राप्त करके उपरितम निबन्धनादि अठारह अधिकारों को लेकर सत्कर्म नामक छठा खण्ड मिलाकर उन पर धवला टीका रची । यह व्याख्याप्रज्ञप्ति वही ज्ञात होता है जिसे वप्पदेव गुरु ने महाबन्ध के स्थान में शेप पाँच खण्डों में सम्मिलित किया था । व्याख्या प्रज्ञप्ति नामक छठे खण्ड को कब किसने रचा इसका कोई स्पष्टीकरण श्रुतावतार से नहीं होता । उसमें क्या था यह भी अस्पष्ट है । उसे स्पष्ट करने के लिये हमें महाकर्मप्रकृतिप्राभृत के चौबीस अनुयोगद्वारों पर दृष्टि डालनी होगी । मगर उस चौबीस अनुयोगद्वारों में से आदि के छः अनुयोग द्वारों से ही छः खण्ड निष्पन्न हुए हैं । इससे आगे के निबन्धन आदि अट्ठारह अनुयोगद्वार शेष रहते हैं । इन्द्रनंदि ने उपरितम निबन्ध आदि से उन्हीं का निर्देश किया है । वीरसेन स्वामी ने अपने गुरु एलाचार्य से सकल सिद्धान्त का अध्ययन तो किया ही, ऊपर के इन अधिकारों को भी लिख लिया किन्तु आठ अधिकार ही लिखे । पीछे व्याख्याप्रज्ञप्ति को प्राप्त करके शेष अठारह अधिकारों में सत्कर्म नामक छठे खण्ड की रचना करके उसे पाँच खंडों में मिला दिया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522602
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG C Chaudhary
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1974
Total Pages342
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size7 MB
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