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________________ ____103 मूलाचार में प्रतिपादित मुनि-आहार-चर्या २. अक्षम्रक्षण :-जैसे गाड़ी को अपने गन्तव्य स्थल तक सुगमता से ले जाने के लिए ओंगन (तेलादि स्निग्ध पदार्थ) की आवश्यकता होती है वैसे ही मुनि भी शरीर रूपी गाड़ी को धर्म साधनार्थ विशुद्ध भिक्षा द्वारा समाधिनगर तक पहुँचा देते हैं। आचर्य वट्टकेर ने लिखा है' "आत्मसिद्धि का साधन-मात्र बनाये रखने के लिए मूनि अक्षम्रक्षण की तरह आहार लेते हैं। क्योंकि धर्म साधनार्थ प्राणों को और मोक्ष प्राप्ति के लिए ही धर्म को धारण किया जाता है। ३. गोचरी :--जिस प्रकार गाय घास को ऊपर-ऊपर से थोड़ा बहत खाकर अपना निर्वाह करती है वैसे ही भिक्षुक को भी दाता को कष्ट न हो ऐसा ध्यान रखकर अपनी अाहारादि आवश्यकताओं की पूर्ति करना चाहिए । राजवातिक में भी इस वत्ति के विषय में कहा है:-जैसे भूखी गाय को दृष्टि विभिन्न आभूषणों से सुसज्जित सुन्दर युवती द्वारा लायी गई घास पर ही रहती है। उसे युवती के सौन्दर्यादि से कोई सरोकार नहीं रहता, उसी तरह भिक्षु को भी भिक्षादाता तथा भिक्षास्थलादि की सजावट के प्रति उत्सुकता नहीं रखनी चाहिए । और न ये सोचना चाहिए कि “आहार सूखा है या गीला ? ___४ श्वभ्र पूरण :---इसे गर्तपूरणवृत्ति भी कहते हैं । अर्थात् जिस किसी तरह मात्र पेटरूपी गड्ढे को भरने के उद्देश्य से सुस्वादु-अस्वादु आदि तरह का ख्याल किए बिना आहार लेना। ५. भ्रामरी वृत्ति :-दातारों पर भार रूप वाधा पहुँचाए बिना कुशलता से भ्रमरवत् आहार लेना । इस भिक्षावृत्ति को "भ्रामरीवृत्ति" और इस तरह के आहार को "भ्रमराहार” कहते हैं । अतः मात्रा से अधिक, पौष्टिक व गृद्धतापूर्वक, गृहस्थ पर भार डालकर मुनि को आहार नहीं लेना चाहिए । आहार ग्रहण का समय :-सामान्य लोगों को भाँति मुनि जब चाहे तब भूख लगने पर आहार नहीं लेते, अपितु दिन में एक बार निश्चित समय पर ही आहार के लिए निकलते हैं। भगवती आराधना में कहा है--"भिक्षा और क्षुधा का समय जानकर कुछ वृत्तिपरिसंख्यानादि नियम ग्रहणकर ग्राम या नगर में ईर्या समिति से प्रवेश करें। अतः सूर्योदय और सूर्यास्तकाल को तीन घड़ी (नाली त्रिक्) को छोड़कर मध्य के एक, दो और तीन मुहूर्त काल में एक बार भोजन करना मुनियों का अट्ठाइसवाँ एकभक्त मूलगुण है। अतः सूर्योदय के बाद तीन घड़ी काल वीतने पर तथा सूर्यास्त के तीन घड़ी काल शेष रहने पर बीच का समय मुनियों का आहार ग्रहण काल निर्धारित माना जाता है। इस बीच वाले १. मूलाचार, ९, ४९. २. राजवार्तिक ९. ६. ३. भगवती आराधना, १५०. ४. मूलाचार १.३५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522602
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG C Chaudhary
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1974
Total Pages342
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size7 MB
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