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________________ 104 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BUI LETIN NO. 2 काल में से तीन मुहूर्तों में भोजन करना जघन्याचरण, दो मुहूर्तों में मध्यमाचरण तथा एक मुहूर्त में भोजन करना उत्कृष्टाचरण माना है ।' भिक्षार्थ गमन के लिए निषिद्ध कालः-जव वर्धा हो रही हो, कोहरा फैला हो, आंधी चल रही हो, मक्खी-मच्छर आदि सूक्ष्म जीव उड़ रहे हों, तब मुनि को भिक्षा के लिए नहीं निकलना चाहिए। इसी प्रकार विकाल अर्थात् भिक्षागमन के योग्य काल को छोड़ कर अन्य समयों में आहार के लिए निकलना निषिद्ध है। जैन आगमों के अनुसार भिक्षक दिन के प्रथम प्रहर में ध्यान करे, दूसरे प्रहर में स्वाध्याय और तीसरे प्रहर भिक्षा हेतु नगर अथवा गाँव में प्रवेश करे। इस प्रकार भिक्षा का काल मध्याह्न १२ से ३ बजे तक माना है। शेष समय भिक्षा के लिए विकाल माना गया है। प्रश्न उठता है रात्रिभोजन का निषेध तो सामान्य लोगों तक के लिए माना है, तव मुनियों को तो अपने आप रात्रिभोजन का निषेध हो जाता है, तब यहाँ इसकी चर्चा क्यों की? इसलिए कि यदि इस विषय की चर्चा छोड़ देते तो कुछ लोग आशंका में ही रहते । मुनि आचार विचार मूलतः अहिंसा प्रधान है। मुनि के पाँचों महाव्रतों के मूल में अहिंसा ही है। श्वेताम्बर-परम्परा में तो पाँच महाव्रतों के अलावा "रात्रि-भोजनविरमण" नामक छठवाँ व्रत भी मान लिया है। यहां तक कहा है कि जो भिक्षु सूर्योदय और सूर्यास्त के प्रति शंकाशील होकर आहार लेते हैं, उनके रात्रि-भोजनविरति व्रत का खण्डन होता है, तथा उसे चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का दोष लगता है।" आ० वट्टकेर ने लिखा है "अहिंसा महाव्रतों की रक्षा के लिए रात्रिभोजन त्याग प्रथम कर्तव्य है। क्योंकि रात्रिभोजन से महावतों के पालन और अष्ट प्रवचनमाताओं के पालन में मलिनता उत्पन्न होती है तथा रात्रिभोजन के लिए निकले मुनि के प्रति गृहस्थों के मन में शंका उत्पन्न होती है कि कहीं ये मुनिवेशधारी कोई चोर, उचक्का तो नहीं है ? अतः इससे आत्मविपत्ति, लोकनिन्दा आदि बाधाएँ उपस्थित हो सकती हैं। इन सब कारणों से मुनियों को रात्रिभोजन के निषेध की चर्चा मूलाचार में थी। भिक्षा के लिए निषिद्ध स्थान : श्रमण पक्षपात से रहित होते हैं। अतः उन्हें निर्धन, मध्यम और उच्च परिस्थिति के श्रावकों में बिना भेद माने प्रासुक-आहार लेना चाहिए। १. वही, ६.७३. २. दशवैकालिक, ५. १. ८. ३. सागरमल जैन, जैन आचार दर्शन का तुलनात्मक और समालोचनात्मक अध्ययन, (अप्रकाशित शोध-प्रबन्ध) भाग २, पृष्ठ १०३९. ४. सूत्रकृताङ्ग १. २, ३. ३. ५. दशाश्रुतस्कन्ध, उद्देश २, अध्याय २. ६. मलाचार ५. ९८, ९९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522602
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG C Chaudhary
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1974
Total Pages342
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size7 MB
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