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________________ 102 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. 2 भी आवश्यक है, जोकि बिना आहार के सम्भव नहीं है। अतः मुनि संयम, ध्यान, तपादि के आचरणार्थ ही आहार ग्रहण करते हैं, न कि बल, आयु और शरीरवृद्धि के लिए। सम्यक् दर्शन, ज्ञान तथा चारित्र रूप रत्नत्रय धर्म का प्राद्य साधन शरीर है। जिसे भोजन, पान, शयनादि के द्वारा स्थिर रखना पड़ता है। किन्तु इस ओर उतनी ही प्रवृत्ति रखनी चाहिए जिससे कि इन्द्रियाँ अपने आधीन बनी रहें। पं० आशाधरजी ने मुनि पाहार-ग्रहण के उद्देश्य बतलाते हुए कहा है कि "मुनि को क्षुधा बाधा के उपशमन, संयम की सिद्धि, स्व-पर की वैयावृत्त्य करने, प्राणों की स्थिति बनाए रखने, आवश्यकों और ध्यान-अध्ययनादि के निर्विघ्न पालन के लिए मुनि को आहार ग्रहण करना चाहिए।' मूलाचार में भी इसके छः कारण बताये हैं। वेदना, वैयावृत्त्य, क्रियार्थ, संयमार्थ, प्राणचिन्ता, और धर्मचिन्ता। इन छ: कारणों के लिए जो यति भोज्य, खाद्य, लेह्य और पेय इन चार प्रकार के आहारों को ग्रहण करता है, वह आहार ग्रहण करता हुआ भी चारित्र-धर्म का पालक है। फिर भी इन्हों वैयावत्यादि छः प्रयोजनों के लिए यदि वह मुनि आहार त्याग करता है, तो भी वह धर्मोपार्जन ही करता है ।२ रयणसार में भी कहा है-"यह शरीर दुःखों का पात्र, कर्मागमन का कारण और आत्मा से सर्वथा भिन्न है। अतः ऐसे शरीर को धर्मानुष्ठान का कारण समझ मुनि इससे धर्म सेवन के लिए थोड़ा-बहुत आहार लेते हैं न कि शरीर पोषणार्थ । अतः जो मुनि केवल संयम ज्ञान-ध्यान और अध्ययन की अभिवद्धि की इच्छा से जैसा मिला वेसा विशुद्ध आहार ग्रहण कर लेते हैं, उन्हें अवश्य ही मोक्ष मार्ग में तत्पर समझना चाहिए। मुनियों को भिक्षावृत्ति के प्रकार : तत्त्वार्थराजवातिक में साधुओं को स्पष्ट रूप से कहा है कि "गुणरत्नों को देनेवाली शरीररूपी गाड़ी को समाधिनगर तक ले जाने की इच्छा रखने वाले साधु को जठराग्नि के दाह शमनार्थ औषधि की तरह, गाड़ी में ओंगन (तेल) की तरह, बिना स्वाद के आहार ग्रहण करना चाहिए। क्योंकि मुनियों के आहार-ग्रहण का उद्देश्य धर्म-ध्यानादि करने के लिए शरीर चलाना मात्र है। अतः मुनियों को आहार ग्रहण किस तरह करना चाहिए, उन चार-पाँच प्रकार की भिक्षावृत्तियों का उल्लेख मिलता है । १. उदराग्नि प्रशमन :-तपश्चरणादि के योग्य शरीर को बनाये रखने के लिए पेट की भूख रूप अग्नि को मात्र शान्त करने के उद्देश्य से आहार लेना। १. अनगारधर्मामृत, ५.६१. २. मूलाचार, ६.६०.५९. ३. रयणसार ११६. ४. वही, ११३. ५. तत्त्वार्थराजवार्तिक, ९, ५. ६. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ३, पृष्ट २४१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522602
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG C Chaudhary
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1974
Total Pages342
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size7 MB
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