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मूलाचार में प्रतिपादित मुनि-आहार-चर्या
फूलचन्द जैन 'प्रेमी' आचार्य बट्टकेर कृत "मूलाचार" दिगम्बर जैन-मुनियों के आचार-धर्म का प्रतिपादन करनेवाला सबसे प्राचीन और प्रामाणिक ग्रन्थ है । इसमें बारह अधिकार हैं। विभिन्न अधिकारों के माध्यम से रचयिता ने श्रमणों के आचार. विचार से सम्बन्धित प्रत्येक पक्ष पर विस्तृत विवेचन प्रस्तुत किया है। साथ ही साथ जैन-धर्म-दर्शन के प्रमुख सिद्धान्तों का भी अच्छा प्रतिपादन किया है ।
"मूलाचार" जिसे कि कुछ लोग आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा रचित भी मानते हैं, उसके षष्ठ पिण्डशुद्धि नामक अधिकार में मुनि-आहार-शुद्धि के विषय में स्वतंत्र विवेचन है । फिर भी इसके रचयिता प्रसंगानुसार अन्य अधिकारों में भी आहार-शुद्धि की चर्चा किए बिना चके नहीं हैं। मुनि-प्राचार में भिक्षाशुद्धि की प्रधानता बतलाते हुए कहा है-“आगम में मूलगुणों और उत्तरगुणों के बीच "भिक्षाचर्या" ही मूलयोग (प्रधानव्रत) है। जो मुनि इस तरह की भिक्षाशुद्धि को त्यागकर (भूलकर) त्रिकाल योगादि करते हैं, उन्हें विज्ञान एवं चारित्र रहित ही समझना चाहिए। क्योंकि जो मुनि स्वयं आहार (पिण्ड), उपधि और शय्या इनका विना शोधन किये प्रयोग करते हैं, उनका चारित्र और आवश्यक क्रियाएँ शुद्ध नहीं हो सकतीं। वे तप, संयमादि तथा अन्य श्रमण-गुणों से रहित ही समझे जायेंगे, चाहे वे चिरकाल से ही क्यों न दीक्षित हों।२
सामान्यतः "आहार" शब्द का अर्थ "भोजन" है । आ० पूज्यप द ने लिखा है-"तीन शरीर और छः पर्याप्तियों के योग्य पुद्गलों का ग्रहण ही "आहार" है। राजवातिककार भी कहते हैं--"उपभोग्य शरीर के योग्य पुद्गलों का ग्रहण आहार है, वह आहार शरीरनामकर्म तथा विग्रहगतिनामकर्म के उदय के अभाव में होता है। आहार के भेद:
संसार में नाना प्रकार के प्राणी हैं, उन सब के प्राणों का प्राधार आहार है। वह आहार विभिन्न प्राणियों की अपनी शरीरप्रकृति के अनुसार विभिन्न
१. मूलाचार, वसुनन्दिकृत टीकासहित, १०. ४६. २. मूलाचार, १०. २६, ३९. ३. त्रयाणां शरीराणां षण्णां पर्याप्तीनां योग्यपुद्गलग्रहणमाहारः ।
___सर्वार्थसिद्धि, २.३०. ४. तत्त्वार्थराजवार्तिक, ९.७.
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