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________________ 98 VAISHALI INSTITUIE RESEARCH BULLETIN NO. 2 नियुक्ति में अवश्य दो, तीन, पाँच, दश अवयवों की बात कही गयी है।' अनुयोग में उपमान के दो भेद हैं-साधर्म्य और वैधर्म्य । इसी तरह पागम के भी दो भेद दिये गये हैं:-लौकिक और लोकोत्तर । प्रमाण को हेतु और व्यवसायात्मक कहा गया है। दार्शनिक युग में प्रमाण के लक्षण और भेदों में विकास हुआ। कुन्दकुन्द ने नियमसार में ज्ञान को स्वपर प्रकाशक बताया है। समन्तभद्र ने स्वपरावभासी बाधा रहित ज्ञान को प्रमाण कहा । सिद्धसेन ने बाधविजित विशेषण और जोड़ दिया-'प्रमाणं स्वपरावभासिज्ञानं बाधविजितं । अकलंक ने “व्यवसायात्मक ज्ञानमात्मार्थग्राहकं मतम्" तथा "प्रमाणविसंवादिज्ञानमनधिगतार्थलक्षणत्वात ये दो लक्षण किये हैं। यहाँ अविसंवादि विशेषण महत्त्वपूर्ण है। विद्यानन्द ने "स्वापूर्वार्थ व्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम्" कहकर 'अनधिगतं' पद नहीं रखा। माणिक्यनन्दो ने समन्तभद्र और अकलंक के प्रमाण लक्षणों को सत्रित कर "सम्यग्ज्ञानं प्रमाणं-स्वार्थ व्यवसायात्मकं सम्यग्ज्ञानं" कहा है। उत्तरकालीन आचार्यों ने इसी परिभाषा का अनुकरण किया है। दार्शनिक काल में प्रमाण भेदों को भी व्यवस्थित किया गया। जैन दर्शन के प्रत्यक्ष के स्वरूप में व्यावहारिक कठिनाई को दूर करने के लिए अकलंक ने सांव्यावहारिकप्रत्यक्ष और मुख्य प्रत्यक्ष ये दो भेद किये। परोक्ष माना जाने वाला मतिज्ञान अब प्रत्यक्ष बन गया। स्मति आदि प्रमाणों का अन्तर्भाव करने के लिए सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष के दो भेद हुए:--इन्द्रियप्रत्यक्ष और अनिन्द्रियप्रत्यक्ष। मति को इन्द्रियप्रत्यक्ष में और स्मृति आदि को अनिन्द्रियप्रत्यक्ष में समाविष्ट किया गया। परन्तु उत्तरकालीन आचार्यों ने स्मति प्रादि को किसी भी तरह अनिन्द्रियप्रत्यक्ष प्रमाण नहीं माना। उन्होंने स्मति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम को परोक्षप्रमाण के ही भेद स्वीकार किये। वादविवाद व्यवस्था : जैन संस्कृति अहिंसा और अनेकान्त प्रधान संस्कृति रही है। इसलिए वादविवाद अथवा जय-पराजय के क्षेत्र में भी अहिंसा का प्रमुख स्थान रहा है। जैन आचार्यों में वादविवाद बहुत अधिक प्रचलित था। सुत्त निपात में उन्हें शायद इसीलिए वादशील कहा गया है।' सच्चक, अभय, असिबन्धकपुत्त गामिणी १. न्यायावतारवृत्ति, प्रस्तावना, ५.७६-७. २. नियमसार, १६०. ३. स्वपरावभासकं यथा प्रमाणं भुवि बुद्धिलक्षणम्, बृहत् स्वयंभू, ६३. ४. न्यायावतार, १. ५. लघीयस्त्रय, ६०; अष्टशती अष्टसहस्री, पृ० १७४. ६. परीक्षामुख १.१. ७. प्रमाण परीक्षा ५३. ८. सुत्तनिपात ३८१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522602
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG C Chaudhary
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1974
Total Pages342
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size7 MB
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