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- जैनधर्म का उद्भव एवं विकास : एक ऐतिहासिक मूल्यांकन 97 आलोचना के सम्बन्ध में उल्लिखित है फिर भी यह तो निश्चित हो स्वयं सिद्ध है कि निगण्ठनाथ पुत्त उस समय सर्वज्ञ और सर्वदर्शी माने जाते रहे होंगे। उत्तरकालीन जैन साहित्य इसी परम्परा पर आधारित है।
जैनधर्म में ज्ञान के पाँच भेद वताये गये हैं:-मति, श्रुति, अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान । इनमें प्रथम दो ज्ञान परोक्ष में और शेष अन्तिम तीन ज्ञान प्रत्यक्ष में समाविष्ट किए गये हैं। जैन दर्शन में प्रत्यक्ष और परोक्ष दर्शन की परिभाषा अन्य दर्शनों की अपेक्षा भिन्न है। यहाँ अक्ष का अर्थ आत्मा लिया गया है। इसलिए प्रत्यक्ष का अर्थ है जो विना किसी के सहयोग के प्रात्मा के द्वारा स्वयं जाना जाये और परोक्ष वह है जो इन्द्रियों के माध्यम से ज्ञान कराये। इसी दृष्टि से केवलज्ञान को प्रत्यक्ष के अन्तर्गत रखा गया है। केवलज्ञानी को ही सर्वज्ञ कहा गया है।
पालि साहित्य में ज्ञान के भेदों की चर्चा नहीं मिलती। जैन अंगोपांगों के आधार पर पं० दलसुख मालवणिया ने ज्ञान के विकासक्रम को तीन भूमिकाओं में बाँधा है।" १. प्रथम भूपिका वह है जिसमें ज्ञानों को पाँच भेदों में ही विभक्त
किया गया है (भगवतीसूत्र ८५.२.३१७) । २. द्वितोय भूमिका में ज्ञानों को प्रत्यक्ष और परोक्ष इन दो भेदों में
विभक्त किया गया है (ठाणांग सूत्र, ७१)। ३. तृतीय भूमिका में इन्द्रियजन्य ज्ञानों को प्रत्यक्ष और परोक्ष उभय
में स्थान दिया गया है (नन्दी सूत्र) । श्रीमालवणियाजी ने इस वर्गीकरण को अनुमान के आधार पर संजोया प्रतीत होता है। अभी जव प्रागम-ग्रन्थों की पूर्वापरता निर्विवाद रूप से सिद्ध नहीं हुई तब मात्र आगमिक ग्रन्थों के आधार पर ही समचा वर्गीकरण असंदिग्ध रूप में नहीं माना जा सकता। इसके बावजूद उक्त वर्गीकरण तथ्यहीन नहीं है। उत्तरकालीन जैन दार्शनिक साहित्य में ज्ञान के तीनों विकास यथा-तथा देखे जाते हैं।
उक्त पाँचों ज्ञानों को दो प्रमाणों में अन्तर्भूत किया गया-प्रत्यक्ष और परोक्ष । अनुयोगद्वार, भगवती और ठाणांग में परोक्षप्रमाण के अन्तर्गत अनुमान, उपमान और आगमप्रमाणों का भी उल्लेख आया है। अनुयोगद्वार में अनुमान के तीन भेद भी मिलते हैं -पूर्ववत्, शेषवत् और दृष्टसाधर्म्यवत् । पूर्ववत् में पूर्वपरिचित वस्तु का प्रत्यभिज्ञान होता है। शेषवत् अनुमान के पाँच भेद हैं-कार्य, कारण, गुण, अवयव और आश्रय । दृष्टसाधर्म्य के दो भेद हैं--- सामान्यदृष्ट और विशेषदष्ट । जहाँ तक अनुमान के अवयवों का प्रश्न है, आगमों में उनके विषय में कुछ भी नहीं मिलता। भद्रबाहुकी दशवैवालिक
१. न्यायावतार-वार्तिकवृत्ति, भूमिका, पृष्ठ ५८.
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