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96 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. 2 किया गया है ।' बुद्ध ने भी अपने आपको विभज्यवादी होने का दावा किया था। साथ ही उन्होंने अपने आपको अनेकांशवादी भी बताया था।२ यहाँ विभज्यवाद और अनेकांशवाद अनेकान्तवाद के पर्यायवाची समझे जा सकते हैं । भगवान बुद्ध अव्याकृत प्रश्नों का उत्तर चार प्रकार से दिया करते थे जिन्हें हम स्याद्वाद के प्रथम चार भंग कह सकते हैं। सूत्रकृतांग, भगवती सूत्र आदि आगम-ग्रंथों में भी इन चारों अंगों को देखा जा सकता है। शेष तीन अंगों का उल्लेख भी आगमग्रन्थों में उपलब्ध होता है जो उत्तरकालीन विकास का सूचक है। अनेकान्तस्थापन में हरिभद्र और अकलंक जैसे अनेक आचार्यों ने इस अनेकान्तवाद के चिंतन और विकास में अपना महनीय योगदान दिया। मात्र अनेकान्तवाद पर ही जैन दार्शनिक साहित्य प्रचुर मात्रा में लिखा गया है।
अनेकान्तवाद के उद्भव और विकास से यह स्पष्ट है कि यद्यपि अनेकान्त का सिद्धान्त जैन, बौद्ध और वैदिक तीनों दार्शनिक सम्प्रदायों में प्रचलित था, परन्तु जैनाचार्यों ने उत्तरकाल में उसे अपना विशिष्ट सिद्धान्त माना और उसके आधार पर अन्य सिद्धान्तों का विकास किया। पालि साहित्य से लेकर प्राकृत और संस्कृत के लगभग ७ वीं, ८ वीं शताब्दी ई० तक के ग्रन्थों में अनेकान्त पर पर्याप्त चिन्तन और मनन किया गया है ।
इसी सन्दर्भ में हम निश्चय नय और व्यवहार नय के विकास को भी देख सकते हैं। प्राचीनकाल से ही दार्शनिकों के बीच निश्चय और व्यवहार का आधार लेकर तथ्य को प्रस्तुत करने की प्रथा रही है। पालि साहित्य में, विशेष रूप से मिलिन्दप्रश्न की रचना के समय तक (लगभग प्रथम-द्वितीय शता० ई० पूर्व) परमत्थ सच्च (निश्चय नय) और सम्मुति सच्च (व्यवहार नय) का उपयोग मिलने लगता है। स्याद्वाद के वीजों के रूप में भी इसे हम स्वीकार कर सकते हैं। पालि साहित्य में इन दोनों नयों का उल्लेख जैन दर्शन की दृष्टि से नहीं मिलता। इसलिए हम यह कह सकते हैं कि जैन दर्शन में उक्त नयों का प्रयोग संभवतया बौद्ध ग्रन्थों से आया होगा। आगम ग्रंथों में इससे सम्बधित जो भी सामग्री मिलती है वह इसके बाद की है। इस दोनों नयों पर अनेकान्तयुगीन जैन साहित्य में कुन्दकुन्द प्रादि आचार्यों के आध्यात्मिक ग्रन्थों के आधार पर काफी लिखा गया है। ज्ञान और प्रमाण :
जैन दर्शन के अनुसार आत्मा और ज्ञान का गुण-गुणीभाव-सम्बन्ध है। इन दोनों को एक दूसरे से पथक नहीं किया जा सकता। यह जैनधर्म का मूल सिद्धान्त है। पालि साहित्य में भी इस सिद्धान्त का दर्शन होता है। सर्वज्ञत्व सिद्धि का आधार भी यही सिद्धान्त है। सुत्तपिटक में निगण्ठनाथ पुत्त को 'सब्बन च सब्ब पस्सावी' कहा गया है। यद्यपि यह उद्धरण निगण्ठनाथ पुत्त की
१. सूत्रकृतांग १.१४.२२ २. मज्झिमनिकाय सुत्त ९९
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