SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 293
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 282 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETİN NO. I का आश्रय लिया है। इसका एक उदाहरण प्रस्तुत निर्विकल्प-सविकल्पकी चर्चा है। केवलाद्वैती परम्परा के उत्तरवर्ती ग्रन्थों में जब प्रमाण निरूपण की अावश्यकता उपस्थित हुई तब उन्होंने सांख्यसम्मत अन्तःकरण, उसकी वृत्ति और उस अन्तःकरण का विषयदेश में निर्गमन इत्यादि बातों को स्वीकार करके अपना कथन पूरा किया है। धर्म और उसके तीन पहलू भारतीय भाषाओं में जो कतिपय शब्द सविशेष विख्यात हैं और जिनके अर्थ का विकास एवं विस्तार भी जोरों से वटवृक्ष की भांति हुआ है तथा जो शब्द प्रायः प्रत्येक भारतवासी को श्रवण-परिचित हैं वे शब्द हैं : ब्रह्म, व्रत ऋत, जीव, आत्मा, यज्ञ, कर्म, पुनर्जन्म आदि। इनमें 'धर्म' शब्द का भी निर्देश करना चाहिये । दूसरे शब्दों की अपेक्षा 'धर्म' शब्द का परिचय-क्षेत्र तथा विविध अर्थों में उसका उपयोग विशेष ध्यान आकर्षित करता है। 'धर्म' शब्द केवल प्राचार अथवा कर्तव्य के अर्थ में ही विकसित नहीं हुआ, उसने तो भक्ति एवं ज्ञान के सभी स्तरों और सभी सम्प्रदायों को अपने में समेट लिया है। इसीलिए श्रमण-ब्राह्मण सभी परम्पराओं के साहित्य में तत्त्वज्ञान, भक्ति और प्राचारप्रधान ग्रन्थ 'धर्म' पद के साथ संकलित उपलब्ध होते हैं। इस दृष्टि से देखने पर धर्म का वर्णन करने वाले को उसकी प्रत्येक शाखा में जो अर्थविकास हुआ है उसका आकण्ठ प्राकलन-संकलन करना चाहिए। मैं इस कार्य को अपनी मर्यादा से बाहर का समझ कर उसके केवल तीन पहलुत्रों का स्पर्श करके यहां पर कुछ विचार करना चाहता हूँ। इनमें से प्रत्येक पहलू का किस प्रकार और किस क्रम से विकास, मेरी दृष्टि के अनुसार, हुआ है तथा इन पहलुओं का पारम्परिक सम्बन्ध कैसा है, यह संक्षेप में दिखलाने का मैं प्रयत्न करूंगा। जीवनमात्र अखण्ड है। उसे समझने के लिए बुद्धि से उसको कुछ भागों में बाँटकर मनुष्य उसके विषय में जानकारी प्राप्त करने का प्रयास करता है, परन्तु जीवन के--अन्तः बाह्य जीवन के-वे विभाग न तो एक दूसरे से सर्वथा भिन्न हैं और न एक-दूसरे के प्रभाव से नितान्त विमुक्त । वैसे विभागों में दो विभाग ऐसे हैं जो सर्वविदित हैं और जिनका कार्य प्रत्येक व्यक्ति सरलता से समझ भी सकता है। वे दो विभाग अथवा अंश हैं श्रद्धा और बुद्धि । प्राणिमात्र का जीवन इन दो मुख्य तटों के बीच प्रवाहित और विकसित होता है। यह विकास ही धर्म है. क्योंकि यही जीवन को धारण करता है। परन्तु हम इस समय जिस कक्षा के धर्म के विषय में विचार करने वाले हैं वह कक्षा तो मानव जाति के प्रारम्भ काल से शुरू होती है और इतर प्राणियों की जीवन-कक्षा से प्रायः भिन्न ही है। आदिम मानव से लेकर आज तक के विकसित एवं संस्कृत मानव में जिस धर्म का विकास हुप्रा है उसकी नीव यद्यपि श्रद्धा एवं बुद्धि ही है, तथापि उस विकास के मुख्य तीन पहलू हैं। पहला पहलू भक्ति, उपासना, पूजा अथवा प्रार्थना का है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522601
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1971
Total Pages414
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy