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________________ DHARMA KE MŪLA: ANUBHŪTI EVAŅ TARKA 219 स त्वमेवासि निर्दोषोः युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् । अविरोधो यदिष्टं ते प्रसिद्धेन न बाध्यते ॥ अर्थात्, वह निर्दोष ( सर्वज्ञ ) आप ही हैं, कारण आपके वचन युक्ति एवं शास्त्र के विरोधी नहीं हैं। ( आप के वचनों में ) अविरोध इसलिये है क्योंकि आप द्वारा प्रतिपादित तत्त्व सर्वमान्य प्रमाणों से बाधित नहीं हैं । आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने पागम एवं हेतुवाद के प्रवृत्ति क्षेत्र का विभाजन करके उनमें सामंजस्य स्थापित किया है । (सन्मतितर्क, ३.४३-५)। कुछ पदार्थ ऐसे हैं, जिन्हें पागम अर्थात् आप्तपुरुष के अनुभव के आधार पर ही जाना जा सकता है, एवं हेतुवाद के विषयभूत पदार्थ भी नियत हैं। आचार्य हरिभद्र ने अपने लोकतत्त्वनिर्णय (श्लोक ३८) में तक की उपादेयता इस प्रकार सिद्ध की है पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिषु । युक्तिम द्वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः । अर्थात्, मेरे मन में न महावीर के प्रति अनुराग है न कपिल के प्रति द्वेष है। जिसके वचन युक्तिपूर्ण हों उसे ही स्वीकार करना चाहिए। न्यायविशारद उपाध्याय श्रीमद् यशोविजय ने अपने अध्यात्मोपनिषत् ( १,६ ) में अनुभूति एवं तक के समन्वय के प्रसंग में जैनदर्शन का हृदय स्पष्ट रूप से हमारे सामने निम्नोक्त प्रकार रखा है मनोवत्सो युक्तिगवी मध्यस्थस्यानुधावति । तामाकर्षति पुच्छेन तुच्छाग्रहमनः कपिः ।। मध्यस्थ पुरुषका मनरूपी बछड़ा युक्तिरूपो ( अपनी ) गोमाता का अनुधावन करता है । ( पर ) दुराग्रही पुरुष का मनरूपी बन्दर उस युक्तिरूपी गाय को उसकी पूछ पकड़ कर अपनी तरफ खींचता है। तात्पर्य यह है कि जब कोई व्यक्ति अनासक्त होकर सत्य अन्वेषण करता है तो उसकी बुद्धि सही युक्ति के सहारे आगे बढ़ती है। वह व्यक्ति आरम्भ से ही तत्त्वपक्षपाती होता है एवं उसकी बुद्धि तर्कप्रसूत होने के कारण आसानी से युक्ति का अनुसरण सकलतापूर्वक कर सकती है। दुराग्रही का मन शुरू से ही कुतर्क के वशीभूत होने के कारण अपने पूर्वाग्रहों के समर्थन में ही तर्क का प्रयोग करता है। निष्कर्ष यह है कि ब्राह्मण, बौद्ध एवं जैन परम्परायें नैतिक एवं आध्यात्मिक तत्त्वों के आविष्कार में अनुभूति एवं तर्क-इन दोनों को महत्त्व देती हैं, पर उनमें अनुभूति को प्राथमिकता इसलिए दी जाती है क्योंकि वह धर्मज्ञान का प्रारंभिक बिन्दु है । वैसे तो कोई भी अनुभूति युक्तिरहित नहीं है । पर युक्ति या तर्क प्रारम्भ में उसे स्वयं अव्यक्त रह कर प्रभावित करता है, एवं अपनी सूक्ष्मता के कारण बुद्धिगम्य नहीं होता। __ धर्मज्ञान के साधनों के बारे में भारतीय दर्शनों का ऐकमत्य हमने देखा । अब विचारणीय हैं धर्म के स्वरूप के बारे में इन दर्शनों की मान्यतायें। धर्म शब्द का प्रयोग यहाँ अत्यन्त व्यापक अर्थ में किया गया है। सामाजिक व्यवस्था एवं वैयक्तिक हित के लिए जितने प्रकार के विधि-निषेध किये गये हैं, वे सभी धर्म के अन्तर्गत हैं। जाति, देश, काल, आदि की विभिन्नता के कारण धर्म की विभिन्नता को समुचित मान्यता हमारे दार्शनिकों ने निःसंकोच दी है । परस्पर विरोधी आचार-व्यवहारों को भी विभिन्न परिस्थितियों में विभिन्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522601
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1971
Total Pages414
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size9 MB
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