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DHARMA KE MULA: ANUBHUTI EVAM TARKA
प्रथना निर्णीत होगा, किसी और कुछ से नहीं । यहाँ ठीक काम करने के साथ ठीक-ठीक बोलना भी शामिल है। तभी तो भगवान् बुद्ध ने कहा है- 'सम्यग् वाचा' | आज अपने कई तरह की बातें सुनीं : सौन्दयं की आराधना करनी चाहिए, साहस से बोलना चाहिए, बढ़ियाँ और सार्थक काम करना चाहिए । लेकिन भगवान् बुद्ध ने इससे भी आगे बढ़कर कहा कि भाई, केवल सत्य वाक् बोलने से नहीं होंगा, सत्य क्रिया भी करनी होगी। क्रिया में - काम में ही तुम्हारा सत्य प्रतिफलित होगा, खाली बात में नहीं । इसलिए सत्य वाचा ही नहीं, सत्य क्रिया भी होनी चाहिए । सत्य क्रिया पर बुद्ध ने शायद इसलिए भी जोर दिया कि भगवान् में प्रगाढ़ विश्वास -- अन्धविश्वास रखने के बावजूद व्यक्ति अच्छे श्राचरण से दूर रह सकता है | बहुत से लोग ऐसे हैं, जो धर्मं में काफी विश्वास करते हैं, लेकिन कर्म — काम कुछ नहीं करते । ऐसे अनेक भक्तिवादी हमें मिलते हैं । यों भक्ति में भी दो पक्ष हैं । एक तो यह है कि भक्ति में कर्म और विश्वास दोनों का समन्वय होना चाहिए । लेकिन एक दूसरा पक्ष भी है, जिसमें कहा गया है कि भगवान् में विश्वास करने के अलावा तुमको कुछ करना धरना ही नहीं है :
अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम । दास मलूका कह गए, सबके दाता राम ॥
भागवत' में भी प्रजामिल का उपाख्यान है । प्रजामिल एक ब्राह्मण था । उसने जीवन भर पाप ही किया। मरने के वक्त उसको पकड़ने के लिये यमदूत आया । अजामिल के लड़के का नाम था नारायण । सो उसने पुकारा 'आईसो पुत्र नारायण' । उस पुकार को सुनते ही विष्णुदूत को शंका हुई कि यह व्यक्ति तों नारायण का, विष्णु भगवान् का भक्त है । फिर क्या था । विष्णुदूत ने अजामिल को यमदूत से छीन लिया- उसे मृत्यु के मुख से बचा लिया। समूची जिन्दगी भर जिसने पाप किया, मरने के समय गलती से उसके मुँह में नारायण आ गया, तो उसकी मुक्ति हो गई। अचरज है कि सम्यग् प्राचरण के बिना ऐसा भी होता है । केवल भक्तिवादियों में ही नहीं, निरीश्वरवादियों या नास्तिकों में भी कई लोग मानते हैं कि कुछ करने घरने की जरूरत नहीं है । ऐसे लोगों में सबसे बड़ा था मक्ालि गोशालौं । वे सब कुछ मानते थे - दुनिया को मानते थे श्रौर पुनर्जन्म भी १. म्रियमाणो हरेर्नाम गृणन् पुत्रोपचारितम् ।
अजामिलोऽप्यगाद्धाम किं पुनः श्रद्धया गृणन् ॥
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- भागवत पुराण, ६. २. ४६ । २. नत्थि, महाराज, हेतु, नत्थि पच्चयो सत्तानं सङ्किलेसाय । महेतु श्रपच्चया सत्ता सङ्किलिरसन्ति । नत्थि हेतु, नत्थि पच्चयो सत्तानं विसुद्धिया । अहेतू अपच्चया सत्ता विन्ति । नत्थि प्रत्तकारे, नत्थि पुरिसकारे, नत्थि बलं, नत्थि विरियं, नत्थि पुरिसथामो, नत्थि पुरिसपरक्कमो । सब्बे सत्ता सब्बे पाणा सब्बे भूता सब्बे जीवा श्रवसा अबला अविरिया नियतिसंगति भावपरिणता, छस्वेवाभिजाती सुखदुक्ां पटिसंवेदेन्ति ।
-दीघनिकाय, नालन्दा देवानागरी - पालि-ग्रन्थमाला, १९६८, पृ० ४७ ॥
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