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________________ વિશ્વાસે ફલ દાયક पर्याप्त कार्य था, जब देखो तब ही वह काम में लगा हुआ ही नजर आता था, उसका एक क्षण भी निकम्मा नहीं जाता था, जहां तक काम से छुट्टी पाई कि दूसरा काम शिर पर तैयार ही रहता था, और वह इसी में पूर्ण मस्त था, एक समय जब कि वहां पर स्वयं गांव के राजा आकर विद्वान शिष्य की सेवा करते हुए एवं उसके एकर शब्द को ब्रह्म तुल्य प्रमाणोभूत मानते हुए देख कर मुर्खराज के मानस ने भी पलटा खाया, अपने विद्या विहिन नि:सार जीवन को बार बार धिक्कारने लगा, न तो उस दिन कार्य में चित्त लगता था और न उसे कुछ दूसरा विचार हो सूझता था, ज्यों त्यों करके दिन पूरा करता, रात्री को गुरु महाराज की सेवा करने लगा पर उसमें भी उसका चित्त नही लगता था, रह रह कर दुःखका आवेग सामुद्री तुफान को नाई उफान मारती थो, इसी से उसकी आंखों द्वारा गरमा गरम गंगा और यमुना का प्रवाह आंसुओं का रुपधर बह निकला, अपने पैरों पर गरम जल बिन्दुओं का अभिषेक होता हुआ देख कर गुरुराज ने सांत्वना के स्वर में पूछा कि-बेटा! आज क्या हुवा, जी इस प्रकार आंसू ठा रहा है, क्या बडे भाई ने तुझे पीटा, या और किसी ने कुछ कहा, किंतु मूर्खराज ने तो मौनावलंबन किया हुवा था फिर बोले ही कौन एक मात्र आंसूओं की मूक भाषा अपनी दुःखद् व्यथा का विशदी करण कर रही थी। पीठ पर हाथों को फिराते हुवे गुरुराजने फिर कहा, बेटा बोलता क्यों नहीं है, क्या मुझसे भी तैने आज अबोला व्रत धारण किया है, प्यारे बेटा मुझे तो तूं ही सबसे प्यारा है तेरी इस अबस्था को देख कर मेरा भी हृदय पसीज रहा है, बोल तो सही तुझे आज हुवा क्या है, इसी तरह अनेक भांति समझाने पर हमारे चारित्र नायक मूर्खराज कुछ शांत होने पर बोलने लगे, गुरुदेव आपने मुझे कुछ भी विद्या नहीं पढाई, विना विद्या के कोई भी मनुष्य को नहीं पूछता, भाई साहब के पास आपकी दी हुई विद्या है जिससे मान पा रहे हैं और मुझे काना कुत्ता भी नहीं मानता, मुझे कोई भी आदर की नजर से नही देखता, और यद्यपि में साधू हूं तदपि मुझे कोई भी वंदना तक नहीं करता, मैंने तो सुन रखा है कि विद्या बिना मनुष्य पशू है, जिधर जाता हूं उधर ही लोक मेरी मजाक उडाते हैं, तब हसकर गुरु महाराज बोले उं, इसमें क्या, तुझे भी विद्या दे देंगे, तब प्रसन्न हुवे हमारे प्यारे मूर्खराज प्रेम से गुरुको कहने लगे, महाराज दो अब वह विद्या, गुरु ने उसे समझाते हुवे फिर कहा, बेटा बिना एकांत के कभी ही विद्या बताई जाती है, एकांत का मौका आने दे तब तुझे विद्या दूगा, मूर्खराज अवसर ढूंढने लगे, किंतु अवसर भी वैरी सा दूर ही रहा करता था, इस प्रकार दिनों पर दिन बीतने लगे पर मौका न मिला, यह देख मूर्ख के मन ने बिचार किया कि बिना स्थंडिल स्थान के गुरु महाराज को एकांत नहीं मिलता जब देखो तब हो कोई न कोई घेरे ही रहता है तो मुझे अब जब कि गुरु ठल्ले की ओर जाएं तब उनके पीछे२ चल कर ऐकांत
SR No.522528
Book TitleJain Dharm Vikas Book 03 Ank 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichand Premchand Shah
PublisherBhogilal Sankalchand Sheth
Publication Year1943
Total Pages40
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Dharm Vikas, & India
File Size8 MB
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