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હિંસા કે પ્રતિ.
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. वत्थम्मि नेहजुत्ते-जुजइ रेणू तहेव जीवम्मि॥
नेहाइय संकलिए-संबज्झइ कम्मगणरेणू ॥२७॥ . मलिणो कम्ममलेहि-जीवो होजा तवेण संसुद्धो॥
दुक्करसज्झं सिग्घ-सिज्झइ विहिनाणपुव्वतवा ॥२८॥ आईस सासणम्मि-आसी परिसियतवो य उक्किट्ठा ॥ सिरिवद्धमाणतित्थे-उकिट्ठो मासछक्कतवो ॥२९॥ वावीसजिणेसाणं-तित्थेसुं अट्ठमासमाण तवो॥ उकिट्टो पण्णत्तो-जिणागमे पुण्णतत्तत्थे ॥३०॥
[अपूर्ण.] हिंसा के प्रति रचयिता-जैन भिक्षु भद्रानंद.
(तर्ज-धरम को भूलगये मेरे प्यारे भाई) हिंसा में नहीं धर्म है मेरे प्यारे भाई। जीव घातमें किसने तुमको, धर्म कही भरमाया। रामायण महाभारत देखो, कहीं नहीं फरमाया ॥हिंसा॥१॥ जैसे अपना जीव अपनको, बहुत ही लगता प्यारा । वैसे दूजों को भी प्यारा, फिर क्यों करता न्यारा ॥हिंसा०॥२॥ सोचो कांटा चुमे पावमें, कितना दुख मनको देवे । देह काटनेसे क्या प्राणी, घोर दुःख नहिं सेवे? ॥हिंसा०॥३॥ याद रखो वे म्रक जीव सब, बुरा श्राप देकर मरते। उसी श्रापसे दुःख उठाते, फिर भी तुम नहीं डरते ॥हिंसा०॥४॥ भेरु भवानी को माता अरु, पिता कही पुकारो।। यदि वे तुमसे घात कराते, तो उनको धिक्कारो॥हिंसा०॥५॥ जिसको माता मुखसे कहते,उसको बलि क्यों देते ।। मात पिता क्या निज पुत्रोकी कहीं बली है लेते ? ॥हिंसा०॥६॥ माता हो यदि पुत्र बली ले, माता नहिं कहलाती। कोट कहीं किल्ले को खाती,बात ध्यान नहिं आती ॥हिंसा०॥७॥ जिस माताको बलि तुम देते, उसको नहिं वह भोगे।.. पापी खाते आंख देखते, फिर भी रह गये योगे ॥हिंसा०॥८॥