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________________ શાસ્ત્રસમ્મત માનવધર્મ ઓર મૂર્તિપૂજા. ૧૩ अत्युक्ति न होगी। वर्तमान में भी ऐसे प्राचीन मंदिर मिलते हैं जो कि जैनधर्म की उत्तमता को प्रकट कर रहे हैं। राजा लोग जैन धर्मके पूर्ण अनुयायी बन गये तब मूर्तिपूजा के संस्कारोंने उनके हृदय में भी घर किया और उन्होंने भी दुर्गों, किलों, गढ़ों, प्रासादों और पहाडों पर शिखरबंद विशाल जैनमंदिर बंधवा कर जैनधर्म की प्राचीनता का एवं अपनी धर्मशान का परिचय दिया। उन मंदिरों में चित्तौडगढ का मंदिर, जैनियोंका कीर्तिस्तंभ, कुंभलगढ, मंडोरु, जेसलमेर, बदनावर, ईडर, जालौर, मांडवगढ, रणथंभो, अलवर, त्रिभुवनगिरि, राजदेहनगरी के रत्नगिरि, विपुलगिरि, व्यवहारगिरि, सोनगिरि पहाड पर, क्षत्रियकुंड की पहाडी पर, कोलसीपहाड (भद्रलपुर) पर, शत्रुजयादि के पहाड पर, तलाजा कदंबगिरि के पहाडों पर, नारभाई की दोनों पहाडियों पर, पाली, जोधपुर, राजनगर के राजगढ (मेवाड) की पहाडी पर के जैन मंदिर आज भी अपनी प्राचीनता को सिद्ध करने के लिये सगर्व उन्नत मस्तक हो खडे हुए हैं साथ ही जैनियों के भूतकालीन उज्ज्वल गौरवको भी प्रमाणित कर रहे हैं। इन सब प्रमाणोंसे यह स्पष्ट प्रमाणित हो जाता है कि मूर्तिपूजा जैनधर्ममें बहुतही प्राचीन है और ईसका अनुकरण संसारने ही किया है। इसमें नवीनता ही क्या है जब कि अन्यान्य समाज भी यहांकी छटा और प्राचीनता की प्रशंसा किये बिना नहीं रह सकता है। जर्मन, अमेरिका, इङ्गलैण्ड आदि के प्रसिद्ध दार्शनिक, फिलासाफर, तार्किक, पुरातत्वज्ञ, एवं अन्वे. षक विद्वान् गण भी इन पुण्य तीर्थस्थानों का निरीक्षण कर अपने इतिहासोंमें भारतीय कला चातुर्य और जैनियों के सार्वभौमाधिपत्य का उल्लेख करते हैं। वास्तव में मौर्य काल के समय जैनियों की अखंड ज्योति जगमगा रही थी इतना ही नहीं किंतु जैन धर्म के अनेक राजा महाराजागण भी अनुयायी हो गये थे और उसके सर्वोत्तम सिद्धान्तों को बहु मानपूर्वक स्वीकार करते थे। कितनेक स्थानों पर जैन धर्म राज्यधर्म हो गया था। राजाओं के सहयोग से भी जैनधर्म के प्रचार में बहुत सफलता प्राप्त हुई थी। हेमचंद्राचार्य सरीखे सर्वतोमुखी प्रतिभा सम्पन्न मुनिवरने भी राजसभा में प्रवेश कर अपने पांडित्य के प्रभाव से अनेक मंदिरों की प्रतिष्ठा एवं जीर्णोद्धार करवाया। जो धर्म राज्यधर्म हो जाता है फिर उसके प्रचार में कुछ भी विलंब नहीं लगता है वास्तव में प्राचीन जैन मंदिर जैनियों के लिये ही गौरवसूचक नहीं है किंतु अन्वेषकों की एक महत्वपूर्ण अमूल्य वस्तु विशेष भी है। पुरातत्व विदों के तो गले का हार रूप ही है। जर्मनी का राष्ट्रीय चिह्न स्वस्तिक (साथिया) है। और स्वस्तिक चिह्न ओर्य प्रजा के संस्कारको ही सूचित करता है। आर्य प्रजा के संस्कार को ही नहीं किंतु जैनत्व का पूर्ण गौरव रूप भी है। जैनी लोग तो वर्तमान में भी प्रभु प्रतिमाके आगे स्वस्तिक (साथिया) करते हैं। जैनियों के अष्ट मांगलिक में स्वस्तिक का भी उल्लेख है। वास्ते ऐसा सिद्ध होता है कि जर्मनी में भी किसी समय जैनियों का प्रभुत्व था। भारतवर्ष के आर्यजन मूर्तिपूजक तो थे ही किंतु पशुपूजा भी करते थे और वे ही परंपरागत संस्कार वर्तमान में भी दृष्टिगोचर हो रहे हैं। आधुनिक भारत में आज भी पशुपूजा का त्यौहार माना जाता है।
SR No.522525
Book TitleJain Dharm Vikas Book 03 Ank 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichand Premchand Shah
PublisherBhogilal Sankalchand Sheth
Publication Year1943
Total Pages28
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Dharm Vikas, & India
File Size7 MB
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