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સાર્વધર્મ
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卐 सार्वधर्म ॥
लेखक-श्री विजययतीन्द्रसूरिजी महाराज. किसीके सत्यस्वभावको ही धर्म कहते हैं, जैसे जल का धर्म शैतल्य अग्नि का उष्णत्व । सार्वत्रिक एवं सर्वात्मिक प्रकृत स्वभाव को यहां सार्वधर्म कहा गया है। सर्व आत्माएं गुण विशेष से जब एक हैं तो उनका सर्व स्वभाव भी एक ही होगा आत्माके स्वभाव की कार्यपरिणति धर्माचरण है। आत्मा जब रागादिक अवगुणों से भृत हो जाती है उस समय इसके प्रकृत स्वभाव में न्यूनाधिक परिवर्तन हो जाता है। राग एवं द्वेष पाप है और इनका आचरण पापाचरण है। ____संप्रति संसार में अनेक धर्म हैं। सर्व चैतन्य आत्माएं एक रूप हैं और सराग-सद्वेष आत्माएँ विविध रूप हैं। ये सब धर्म एक समय जन्य नहीं है। जब जब चैतन्य आत्मा के प्रकृत स्वभाव में परपीडक परिवर्तन होता है तब तब ही इनका अवतरण हुआ है। धर्म सुख की प्राप्ति का एक मात्र साधन है। आत्म लक्ष्य भी अनन्त सत्य, शिव, सुन्दर सुख की प्राप्ति है और धर्म इसका साधन है। वह सुख चाहे इसलोक में प्राप्त हो या परलोक में या अन्यत्र कहीं। जब आत्मा कर्मों से परिवेष्टित हो कर शरीरावस्थामय जन्म को धारण करती है तब इसके प्रकृत धर्म में परवशता आ जाती है। यह परवशता अज्ञान मोहादि कर्मों के कारण होती है।
आत्मा के अन्तर्जगत् का कार्यकलाप सदाचार है और बाह्यजगत् का कार्यकलाप व्यवहार है। सर्व आत्माओंके कार्यकलाप भिन्न भिन्न होते हैं, अतः इनके व्यवहार भी भिन्न होते हैं। आत्मा जब जागृत होती है तब वह बाह्य जगत् से स्वतंत्र होने की चेष्टा करती है, उसका यह सत्याग्रह क्रान्ति है। सर्व धर्म क्रान्ति के समय एक थे जो शिवसुख को प्राप्त करने के लिये स्थापित हुए। जिनसे अर्थ, काम, मोक्ष प्राप्त हो वह धर्म भी एकरूप ही होना चाहिये, ऐसा एक ही धर्म सार्वधर्म है उनका लक्ष्य एक है परन्तु पंथ भिन्न भिन्न हैं। ध्येय प्राप्तिके साधन उन्हें हम सिद्धान्त कह सकते हैं और वे भिन्न हो सकते हैं उनकी परिभाषाएँ भी भिन्न हो सकती हैं लेकिन ध्येय सबका एक ही होगा। अनन्त सुख धर्मों में विद्यमान हैं, सभी धर्मोंने सार्वधर्म बनने की कोशिश अवश्य की है और वह यथाशक्ति इस प्रयास में सफल भी होता है। किसी धर्म को पूर्ण सफलता प्राप्त न ही हुई तो इसमें धर्मका कोइ दोष नहीं है, दोष था प्रचार का। प्रचारक त्रुटियां कहां करते हैं। यह भी बताना आवश्यक है।