SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 22
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३५१ જૈનધર્મ વિકાસ. संसार परिवर्तन शील है अतः सुख एव शान्ति जो हम इस परिवर्तनशील संसार में प्राप्त करना चाहते हैं वे भी परिवर्तनशील होने ही चाहिये । लेकिन हम सिद्धान्तों को ध्येय मान चुके हैं, उनमें परिवर्तन करना अब हमे नहीं रुचता । यही एक मात्र कारण है कि कोई भी धर्म सदा के लिये सार्वत्रिक एवं सार्वजनिक नहीं हो सका। वर्तमान धर्मों में श्रेष्ठ धर्म कौनसा है यह निर्णय देना अनुचित है इतना लिखना अवश्य समीचिन होगा कि वह धर्म जिसमें कि अहिंसा, सत्य, अचौर्य, अमैथुन, अपरिग्रह पर विशेष जोर दिया गया हो, वह धर्म सार्वधर्म बनने की क्षमता रखता है। चाहे वह जैन हो अथवा अन्य कोई दूसरा । विश्व के समस्त धर्मसंस्था में हिंसा, चौर्य, मैथुन, मृषावाद आदि का एक स्वर से खंडन करती हैं। उन्हें पाप, अवगुण बताती हैं और त्याज्य कहती हैं। ___ आदर्श जीवन बनाने पर प्रत्येक संस्था जोर देती है। अपने पूर्वज महापुरुषों अवतारों का स्मरण पूजन कराती हैं। यदि कोई शंका करे कि आत्मा सब प्राणियों में एक है। कीड़ी से लेकर कुंजर तक की आत्मा एक सदृश ही है तो अमुकअमुक धर्मों में हिंसा मंडन क्यों किया गया है। उदाहरणार्थ इसलाम धर्म को ही लीजिये । यह धर्म एक ऐसे समय एवं देश में उत्पन्न हुआ था जब कि वहां अन्न भी उत्पन्न नहीं होता था। उस समय अनेक प्रकार के अभक्ष्य पदार्थ खाये जाते थे। पैगम्बर मुहम्मदने उस समय के लिये मांस भक्षण का निर्देश किया, परन्तु जब वह समय निकल गया, खाद्य सामग्री प्रचुर मात्रा में मिलने लगी, ऐसी अवस्था में मांस भक्षण का मंडन करना पैगम्बर मुहम्मद के सिद्धान्त को न समझना और पाप है। यह निश्चित है कि मांसभक्षण का आदेश देना भी पैगम्बर के लिये धर्म विरुद्ध है या था। ___ अब कहने का आशय यह है कि अर्थ, काम और मोक्ष धर्म से प्राप्त होते हैं और उनको प्रत्येक जाति, देश, समाज अपनाता है और एक ही रूप में। मनः पर्याय सब आत्माओं के देश काल स्थिति के अनुसार परिवर्तन होते हैं। अतः शिवसुख प्राप्ति के साधन में भी विविधरूपता आती है, लेकिन इस परिवर्तनता में भी लक्ष्य तो सदा एक ही रहता है। वह यह कि सत्य, शिवसुख की प्राप्ति । संसार में जैन, सनातन, वैदिक, इसलाम, इसाई, पारसी, बौद्ध आदि अनेक धर्म हैं । जैनधर्म यह स्वयं स्वीकार करता है कि आदि में (कालविशेष में) धर्म नाम की संस्था नहींवत् थी। आदि पुरुषों के जीवन सुखप्रद थे, स्वर्गीय आनन्द का रसास्वादन सर्वत्र था। जब मनःपर्याय में परिवर्तन हो गया तो दुःख का अंकुर मानवजीवन में
SR No.522523
Book TitleJain Dharm Vikas Book 02 Ank 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichand Premchand Shah
PublisherBhogilal Sankalchand Sheth
Publication Year1942
Total Pages40
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Dharm Vikas, & India
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy