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શાસ્ત્રસમ્મત માનવધર્મ ઔર મૂર્તિપૂજા
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कहा ! पाठको ! ध्यान दीजिये एक मूर्ति पूजा विरोधी आर्य भक्त के हृदयस्थित उद्गार रूप वचन पर ? ये आन्तरिक स्नेह भावना से निकले हुए वचन स्पष्ट प्रतिमा पूजा के मंतव्य की ही सिद्धि कर रहे हैं। प्रत्येक आर्य भक्त के घर पर ॐ और स्वामीजी का फोटू लगा हुआ पावेंगे। यदि वास्तव में ये लोग मूर्ति पूजा के विरोधी होते तो कदापि स्वामीजी का फोटो ही प्रकाशित न कराते और न अपने घरों में ही इन फोटुओं को उच्च स्थान देते । उनकी ये प्रवृत्तियां ही स्पष्ट मूर्तिपूजा की घोषणा कर रही हैं। इस प्रकार एक नहीं किंतु अनेक एतद्विषयक प्रमाण दिये जा सकते हैं किंतु ग्रंथ विस्तार के भय से इतना ही लिखना मर्यादा और प्रासंगिक है । अतः यह सिद्ध हुआ कि जगत् के सकल समाजी मूर्तिपूजा के ही उपासक है। जो मूर्तिपूजा प्रारंभ से ही करते आये हैं ऐसे जैन, शैव, वैष्णव, वैदान्तिक और बौद्धों के लिये विशेष लिखने की आवश्यक्ताही नहीं कारण जब मूर्तिपूजा से विरोध रखने वाले मज़हबों को भी मूर्तिपूजक सिद्ध कर दिये हैं तब उसके उपासकों के संबंध में तो संशय ही कैसे हो सकता है ? जब विरोधी भी मूर्ति की अवहेलना नहीं कर सकते हैं तो उसको महत्व देने वाले तो विरोध करेंगे ही कैसे ? तात्पर्य यह है कि मूर्ति की व्यापकता क्षेत्र संकुचित न होकर सार्वभौम है। मूर्तिपूजा विश्वव्यापक सिद्धान्त है इसी लिये इसका अनुकरण प्रकारांतर से सबने किया ही है। वास्तव में आकृति विशेष ही मूर्ति है और उस आकृति का सन्मान करना ही पूजा है । मूर्ति पूजा इनसे कोई भिन्न स्वरूप वाली नहीं है। कितनेक मंदमतियों के मन में यह भी कल्पना जमी हुई है कि मंदिरों में जड़ प्रतिमाओं की स्थापना करने से क्या लाभ है जबकि हम अपने हृदय में ही निराकार प्रभु का ध्यान कर सकते हैं ? किंतु उनकी यह मान्यता अव्यवहार्य है क्योंकि जब हम अपने हृदय में किसी का ध्यान करेंगे तो वह ध्यान साकार का ही होगा निराकार का नहीं। साकार ध्यान ही प्रतिमा सिद्धि का हेतु है। जिस प्रकार मूर्तिपूजा विरोधी लोग हृदय में प्रभु की कल्पना कर उनके गुणों का स्मरण करते हैं उसी प्रकार मूर्तिपूजक लोक भी किसी विशुद्ध स्थान पर निर्विकारी प्रभु की प्रतिमा को साकार रूप में स्थापित करके उनके गुणों का स्मरण कर अपनी आत्मा को उज्ज्वल बनाते हैं। दोनों की कल्पना, स्थापना
और पूजा में समानता एवं एकता होते हुएभी अंतर है तो केवल इतना ही कि जिस हृदय मंदिर में निराकार प्रभु की साकार कल्पना की जाती है वह क्षण विध्वंसी है और प्रतिमा स्थापना द्वारा किया जाता हुआ प्रभु स्मरण कियत् कालस्थायी अवश्य है। प्रभु प्रतिमा की स्थापना का धर्म लाभ आबाल गोपाल ले सकते हैं किंतु निराकार का ध्यान सब लोग सहसा नहीं कर सकते हैं। प्रभु प्रतिमा द्वारा वीतराग प्रभु की कल्पना होना जितना सरल है उतना ही कठिन निर्विकारी निराकार प्रभु की कल्पना करना है। प्रभु प्रतिमा से रस्ते चलते हुए आदमी भी वंदन लाभ उठा सकते हैं किंतु इतना सहज लाभ निराकार प्रभु की कल्पना से न होगा। अतः हृदय में कल्पना करने की अपेक्षा