________________
૩૫૦
જેનધર્મ વિકાસ.
समान ही है। स्थानयवासियों में तेरहपंथी समाजनेभी अभी अभी अपने स्वर्गीय पूज्य श्रीकालूरामजी का एक समाधिस्थान बनाया है। जिसकी उनके भक्त लोग पूजा करते हैं और दूर २ से दर्शनार्थ आते हैं। इतना ही नहीं चौथमलजी महा. राज जो कि जगद्वल्लभ कहे जाते हैं उनके भी फोटु देखे गये हैं इनके अतिरिक्त ऋपि संप्रदाय और धर्मदासजीकी संप्रदाय के भी अनेक साधुओंके फोटु निकाले हुए नजर आते हैं क्या ये सब बातें फोटुओं द्वारा विश्ववंद्य बनने के प्रयत्नों में नहीं हैं ? क्या मूर्तिपूजा इनसे कोई भिन्न पदार्थ है ? अपने फोटुओं को वंदन करने वाले भक्त को तो आप लोग उत्कृष्ट सम्यक्त्वी और दृढधर्मी कहने में कदापि संकोच नहीं करेंगे किंतु प्रभु प्रतिमा की पूजा करनेवाले के प्रति इतनी कुत्सित भावनाएं क्यों हो जाती हैं ? अरे ! आप के फोटु को वंदन करने और प्रभु प्रतिमाको वंदन करने में अंतर ही क्या है ? आप के फोटुको वंदन करनेकी अपेक्षा तो प्रभु प्रतिमाकी पूजा और वंदना करनेमें अत्याधिक आत्मलाभ प्रत्यक्ष ही है। वास्तव में मूर्तिपूजा को सब मतमतान्तरोंने स्थान दिया ही है और वर्तमानमें भी दे ही रहे हैं। इसी के अवलंबन से इनका मत संसार में टिका हुआ रह सकता है जिस दिन वे मूर्तिपूजाको स्थान न देंगे उसी दिनसे आत्महानिके साथ २ मत और पक्षहानि भी होती जायगी। यह न केवल वाणीरुप शब्द ही है किंतु सैद्धान्तिक तत्व विशेष भी है। वास्तव में जगजीवों के हृदय में सतत प्रभु भक्तिभावों की उज्ज्वल ज्योति कायम रखनेके लिये अन्य उपकारी पदार्थोके समान प्रभु प्रतिमा भी एक मुख्य साधन है। मूर्तिपूजा का निषेध ईस्लाम, क्रिश्चियन और कवीरादि की संप्रदायवाले तो क्या कर सकते हैं किंतु मूर्तिपूजा के विरोध का ढोंग बताने वाला स्थानकवासी समाज और आर्यसमाज भी इसका विरोध नहीं कर सकता है कारण अनेक पुस्तकादि में इन लोगोंने चित्रादि देकर मूर्ति पूजा की उपादेयता ही सिद्ध की है। इन चित्रों से प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप में मूर्तिपूजा को उत्तेजना ही मिली है। एक बार मैंने भी किसी सभास्थल में कितनेक आर्य भक्तों को स्वामीजी का पुष्पहार से शोभित चित्र उच्चासन पर रखते हुए देखा तब मैंने उनसे प्रश्न किया कि महाशयजी! जब आप लोग प्रतिमा को स्थान ही नहीं देते हैं और उसका सतत खंडन करते रहते हैं तो फिर यहां यह मायाजाल क्यों फैला रखी है ? क्या यह प्रपंच नहीं हैं ? एक ओर तो उसका विरोध करना और दुसरी ओर उसका मंडन करना माया नहीं तो ओर क्या है ? जैसे हाथी के दांत खाने के और तथा दिखाने के और होते हैं वैसे ही आप का कहना और है और करना और है। यह तो वैसी ही कहावत हुई कि आप खावे काकडी और दूसरा ने देवे आखड़ी (शपथ, सौगन)। तब उन आर्यभक्तों में से एक ने उत्तर दिया कि-महोदयजी ! हम लोग मूर्तिपूजा के नितान्त विरोधी हैं किंतु स्वामी जी आज विद्यमान नहीं है अतः उनका परिचय और स्मरण कराने के उद्देश्य से ही यह उनका चित्र यहाँ रखा गया है यद्यपि इस चित्र को हम साक्षात् स्वामीजी नहीं मानते तथापि उनके परिचय हेतु यह पर्याप्त और आवश्यक है। वाह ! भाई वाह ! खूब