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નધર્મ વિકાસ,
उत्तम तो यह है कि हम चिरस्थायी मंदिरों में जाकर ही प्रभु की उपासना करें कारण प्रभु की प्रतिमा साकार रूप में समक्ष रहने से हमारे भावों की उच्चता, उत्कर्षता और उज्ज्वलता उत्तरोत्तर वृद्धिगत होती है। प्रभु की उपा. सना भावों की प्रकर्षता के लिये ही की जाती है और उनका संभव साकार स्थापना किये बिना असंभव नहीं तथापि दुष्कर अवश्य है। गुणों का ध्यान गुणी के बिना कदापि नहीं होता है क्यों कि गुण और गुणी दोनों अन्योन्याश्रित भाव से संबंधित हैं । जब किसी के गुण की उपासना एवं स्तुत्यादि क्रिया की जायगी तब गुणी की स्थापना अत्यन्त जरूरी ही होगी। यदि गुणी की आव. श्यक्ता न मानी जायगी तो गुण कहां रहेंगे? साकार मूर्ति पूजा का अवलंबन ही सर्व साधारण के लिये हितकर और श्रेयस्कर है। निराकार ईश्वर की उपासना भी साकार मूर्ति होने पर ही कर सकते हैं। इस प्रकार करने से धर्ममार्ग में प्रवृत्ति भी शीघ्रतापूर्वक हो सकती है। वास्ते निराकारोपासना की अपेक्षा साकारोपासना में प्रत्यक्ष स्पष्ट अनेक विशेषताएं हैं जो कि मूर्ति पूजा की व्यापकता को सिद्ध करती हैं।
मूर्ति की प्राचीनता. __ मूर्ति की सार्वभौम व्यापकता और महत्ता प्रमाणित कर चुकने के अनंतर मूर्तिपूजा की प्राचीनता पर भी किंचित् प्रकाश डालना अत्यतावश्यक प्रतीत होता है। वैसे तो इस विषय में परमादरणीय, सुलेखक, इतिहास प्रमी मुनिवर्य श्री ज्ञानसुंदरजी म. सा. ने अपने "मूर्तिपूजा के प्राचीन इतिहास" द्वारा विशद एवं पर्याप्त प्रकाश डाला है तथापि उन्हीं के आधार पर हम भी यहां संक्षेप में सामान्य उल्लेख करना आवश्क समझते हैं।
मूर्तिपूजा यह नवीन प्रणाली और मनगढंत कल्पना कदापि नहीं मानी जा सकती है। क्यों कि इसकी प्राचीनता के सूचक और द्योतक अनेक शास्त्र सम्मत प्रमाण अद्यावधि विद्यमान हैं जिन पर विशद प्रकाश आगे के प्रकरणों में डाला जावेगा यहां तो केवल ऐतिहासिक प्राचीनता सूचक कतिपय बातों का ही उल्लेख करना है। गौड़ देश के आषाढ़ नामक श्रावक ने इक्कीसवें तीर्थकर श्री नेमिनाथ भगवान् के २२२२ वर्ष के पश्चात् तीन प्रतिमाएं बनवा कर उनकी चारूप नगर, श्री पत्तन नगर एवं स्तंभन नगर में प्रतिष्ठा करवाई थी। इन तीनों प्रतिमाओं में से स्तंभन तीर्थ में श्री पाश्वनाथ प्रभु की प्रतिमा प्राचीनता के प्रमाण स्वरूप वर्तमान में भी विद्यमान है उसके पृष्ठ भाग पर एक शिला लेख भी अंकित है जो कि उपरोक्ताशय की ही सिद्धि करता है। वह इस प्रकार है:
नमेस्तीर्थकृतस्तीर्थे, वर्षे द्विक चतुष्टये । आषाढ श्रावकोगौडोऽकारयत् प्रतिमा त्रयम् ॥
श्रीतत्वनिर्णयप्रासाद पृष्ठ ५३४.
(अपूर्ण.)