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________________ ૨૫૪ જનધર્મ વિકાસ, A ॥ श्री आदिनाथ चरित्र पद्य ॥ (जैनाचार्य श्री जियसिंहसूरीजी तरफथी मळेलु) ( मतis ५४ २०७ थी मनुसधान) जिन मंदिर से आयकर, आया निजहनिवास । वहां तेज लावन्य युत, मिली देवी एक खास ॥ सुन्दरताकी रवान, मुखद्युती चमके चंद्र सम । कहां लगी करहुं बरवान, उपमा युत वह सुन्दरी॥ करती दिलसे सेव, ललितांग क्रीड़ा करे । आवन जाने देव, उठ सन्माने प्रेम युत ॥ बहुत समय बीता इहि भांति, स्वयं प्रभा कर आयुष जाती। ललितदेव तब अति दुख पावा, प्रिया देख मूर्छित हो जावा ॥ क्षण भर में पुनि मूर्छा भागी, रुदन करत बिरहा कुल भागी। बन उपवन सब लागत नीके, नन्दन बन निरखत मन चीके ॥ हाय प्रिया गुण सुन्दर खानी, मम प्रीती तुम नहीं पिछानी । करत विलाप फिरत वह देवा, स्वयं प्रभा मय सब जग जेवा ॥ हाय प्रिया मैं कब तुम पाऊं, तुम बिन प्रिया न जीवन चाहूं। इधर स्वयंबुद्ध मंत्री को, हृदय जगा वेराग्य । दिक्षाली तब तुरतहीं, धन्य मंत्रीवर भाग्य ॥ सिद्धाचार्य आचार्य, दिक्षादीनी आनकर। काटा भवदधि जाल, सहज कृपाल गुरुवर ।। साधू धर्म पाला बहु काला, अत देवगति हुआ देवाला ॥ नाम मया तेहि का द्रढ़ धर्मा, महा तेज गुण अति शुभ कर्मा । कर विहार आवा तेहि ठामा, जहां ललित विलपत मन कामा॥ देख पूर्व कर प्राती उपजी, ललितदेव सन पूछत कलपी। कहहु दैव क्यों विलपत कानन, तुमहीं विलोक दशा दुख तामन ॥ तबहिं ललित सब कथा सुर्नाई, स्वयं प्रभाकर बात बताई। सुनत सुधर्म बहुत सम भावा, कामी ललित एक नही भावा ।
SR No.522520
Book TitleJain Dharm Vikas Book 02 Ank 08 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichand Premchand Shah
PublisherBhogilal Sankalchand Sheth
Publication Year1942
Total Pages52
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Dharm Vikas, & India
File Size10 MB
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