________________
જનધર્મ વિકાસ,
-
-
॥शीलकुलकम् ॥
रचयिता-जैनाचार्य श्रीविजयपद्मसूरिजी.
(Y. २ मई २. ५०४ ४४ थी मनुसंधान) दासी पास गच्चा-विलवह करुणारवेण कुंभारी ॥ इय गच्चा दासीए-तग्गेहं भूवरामाई ॥५६॥ मय ववहार ठिईए-गया मओ कोत्ति केणइजणेणं ॥ पुढे कहंति सम्वे-न जाणिमो तत्थ पज्जते ॥५७॥ निवरामा कुंभारि-पुच्छह मह गद्दही सिम् अज्ज ॥ मरणं पत्तो तत्तो-विलवमि णच्चा य सव्वे सिं ॥५८॥ कहइ नरेसर रामा-सोच्चा सव्वे निवप्पहाणाई ॥ बहु लज्जिया सखेआ-सिग्धं सट्ठाण संपत्ता ॥५९॥ सोच्चा निदसण मिण-गडरियावाहगमण परिहारो॥ कज्जो नियपरभई-साहिज्ज पमायपरिचाया ॥६॥ करणासरज्जुतुल्लं-जिणवयणं णेइ मुत्तिमग्गम्मि ॥ जीवं कुणइ थिरमणं-तप्परतंता जिणंति रिऊ ॥११॥ निंब कडुपि जहा-मण्णइ णिवस्स कीडओ मिहं ॥ निंबसमो. संसारो-संसारी निंबकीडसमो ॥६२॥ जह मच्छिआ सिलिम्हे-होज विलित्ता तहा विसय संगी॥ सेफसमाणा विसया--संसारी मच्छिआतुल्ला ॥३॥ आउरकयहेऊसुं-गणिओ राओ जओ विसयराई ॥ आउं नासेइ जहा-पवंगणा दस य कामदसा ॥६४॥ विसयज्झाणारंभा-गीया वि कमेण भासए मरणं ॥ गयजयणिबंधणेसुं-विसयारिजओ ऽवि पण्णत्तो ॥६५॥ ठाणंगभासिएसुं-रोगणिमित्तेसु विसयसंगित ॥ बुत्तं महुबिंदुसम-विसयसुहं भयअपरिणामं ॥६६॥
द्रुतविलम्बितवृत्तम् ॥ अवरदारगई निरयप्पया, निसुणिऊण सुशीलजिणागमं ॥ नियमणम्मि धरिज्ज सुभावणं, पवरसीलमई जहरोहिणी ॥६७॥ विविहजुत्तिवला पडिबोहिओ, सवइ तीइ नराहिवणंदओ॥ पपरहंससमा सुहसीलया, विसइकागदुगम्मि ण भिण्णया ॥६॥