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________________ ૧૯૦ ही परम आश्रय होते हैं। आकाशमें उदय हुआ सूर्य मनुष्य को केवल बाह्य नेत्र ही देता है, परन्तु सन्त महापुरुष तो उसे ज्ञान रूपी अन्तरिक नेत्र प्रदान करते हैं। ऐसे महापुरुष सन्त जन ही देवता, बन्धु, सब के आत्मा और साक्षात् भगवान् के स्वरूप हैं। ये महापुरुष ही जगत् के आधार होते हैं और यही जगतरूपी आकाश की परम प्रकाशमयी उज्ज्वल ज्योति होते हैं, इनको त्यागमयी प्रतिमा सर्वत्र और सर्वथा वन्दनीय होती हैं। परम पूज्य श्रीमान् आचार्य महाराज विजयनीतिसूरीश्वरजी भी वर्तमान युग के ऐसे ही एक आदर्श महापुरुष थे। उनके जीवन पर जितना ही अधिक मनन किया जाता है, उतनी हो अधिक उनपर श्रद्धा-भक्ति बढ़ती हैं। आज भारतवर्ष के और जैन समाज के लाखों नर नारी उनके आदर्श चरित्र की पूजा करते हैं और उनकी महान् शिक्षा से लाभ उठा रहे हैं श्रीमान् आचार्य महाराज श्री विजयनीतिसूरीश्वरजीने जो कुछ किया और कहा, उसमें कही भी किसीकों कोई दिखावटकी बात नहीं दीख पडी। उनकी शिक्षा इतनी सरल और स्वाभाविक है मानो उनका हृदय ही पाणी बनकर सबके सामने आ जाता है। उसमें पाण्डित्य नहीं, पर अनुभवकी वह अनोखी छटा है जिसके सामने बड़ेबड़े पण्डित सिर झुकाने को बाध्य होते हैं । उसमें तर्क का जाल नहीं, पर वह ईतनी बलवति है कि बड़े से बड़े तार्किकको भगवद्भक्त बनने के लिये मजबूर कर देती हैं। बड़े ही आनन्द का विषय है कि भारती संस्कृति और साधनाके मूर्तिमान स्वरूप, वर्तमान विश्व के इन भादर्श महापुरुषका अठाई उत्सव मनाने का देश विदेश माहानुभाव पुरुष बृहत् आयोजन कर रहे हैं। आशा है सभी देश, जाति और धर्म सम्प्रदाय के लोग इस पवित्र अठाइ महोत्सव यथायोग्य रूपसे सम्मिलित होकर महापुरुष से प्रति अपनी श्रद्धाञ्जली अर्पण कर पुण्य के भागी होगें। विर નીતિ તુમ વચનમાં, આત્મ શ્રદ્ધા બહુવસી, ટુંક સમયની દેશનાં, ને તું મૂતિ ઉરે વસી, નેહાળ મૂતિ આપની, અંતરે પ્રગટ થતી, स्थान पासी पंय साधु, १४या 3रे पसी.... ગુરૂ તુજ ચરણમાં, હર હંમેશ વંદના કરું, નેહાળ ભાવ આપનાં, જેવાં ભાગ્યશાળી બનું, ગુરૂ વિના આ બાળનું, જન્મી હૃદય કંપે છે, स्था नाभि२ मा ३,२ ६२ ४४ बसे छ..... ભગવંત આજ્ઞા અનુસરી, ગામે ગામ વિહારમાં, સુણાવી વરની વાણી, નર નારી પ્રતી બોધતાં, કામી સંસાર કુપને, બચાવી આત્મ કુંભને, છેદી અઢાર પાપને, મોક્ષકા પંથે તે ચલે રચયિતા શાંતિલાલ
SR No.522516
Book TitleJain Dharm Vikas Book 02 Ank 04 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichand Premchand Shah
PublisherBhogilal Sankalchand Sheth
Publication Year1942
Total Pages104
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Dharm Vikas, & India
File Size14 MB
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