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________________ મહાપુરુષે કા મહિમા. - महापुरुषों का महिमा ले. 'कुशलविजय'जी अहमदाबाद. _ महापुरुषां की महिमा कौन गा सकता है ? वे वस्तुतः भगवद् रुप ही होते हैं, बल्कि भवतापसन्तप्त जीवों के लिये तो उनको भगवान् से भी बढ़कर समझना चाहिये । संसार में मनुष्य भगवान् को नहीं देख पाते, उनके चरणों में उपस्थित होकर उनकी सेवा नहीं कर सकतें, उनसे साक्षात् उपदेश ग्रहण नहीं कर सकतें, उनके प्रत्यक्ष आचरणों और व्यवहारों को अपनी आँखों से देखकर उनका अनुसरण नहीं कर सकते, परन्तु महापुरुष तो मनुष्यों जैसे ही शरीरधारी और उन्हीं के जगत् में उनके सामने प्रत्यक्ष रहते हैं, इससे मनुष्य मात्र-चाहें तो उनसे पूरा. लाभ उठा सकते हैं। भगवान् हमारी आँखों से छिपे रहते हैं, परन्तु महापुरुष तो प्रत्यक्ष मूर्तिमान् भगवान् हैं। भगवान्ने स्वयम् यह स्वीकार किया है कि मुक्ति में और मेरे प्रेमी भक्तों में वास्तवमें कोई अन्तर नहीं हैं। जो मैं हूं सो वे हैं। और जो वे हैं सो में हूँ। "तस्मिस्तजने भेदा. भावात्,” भगवान् में और उनके भक्तोंमें कोई भेद नहीं है। वे भगवानन्के मूर्तस्वरूप हैं। उनके दर्शन, स्पर्श और भाषण की बात तो दूर रही, उनके स्वरूप और आचरणो के स्मरण मात्र से ही हृदयमें पवित्रता का सञ्चार होता है और मनकी गति बरबस भगवान् की और हो जाती हैं ! ऐसे महापुरुषों के प्रगट होने से ही भगवान् की लीलाका जगतमें विस्तार होता है। येही लोग प्रभुके सच्चे सन्देशवाहक और प्रतिनिधि होते हैं। जिस भूमि पर ऐसे महात्मा प्रगट होते हैं, वह भूमि पवित्र हो जाती हैं, जहां ये विचरते हैं, वह देश सद्ध हो जाता है. जहाँ ये निवास करते हैं। वहाँ का बातावरण पवित्र हो जाता है, जिन स्थानों में ये भगवदाराधन करते हैं वे तमाम पात कियों को पावन करनेवाले तीर्थ बन जाते हैं, जिस ग्रन्थको ये पढ़ते हैं, वह जगत का आदर्श धर्म ग्रन्थ बन जाता हैं। ये जो कुछ उपदेश करते हैं वही शास्त्र बन जाता हैं ये जैसा आचरण करते हैं । वैसा ही वहाँ के लोगों का आचार बन जाता हैं इनका प्रकाश इतना प्रखर होता हैं । कि दूर दूर तक पाप ताप रूपी अन्धकार नहीं रह सकता, आनन्द यौर शान्ति की शीतल प्रफुल्लतामयी चांदनी सर्वत्र छिटकी रहती हैं । जो इनके चरणों का आश्रय ले लेते हैं वे स्वयम् तेर जाते है और जगत को तारने वाले बन जाते हैं। जिस प्रकार अग्नि का आपाश्रय लेने पर शीत, भय और अन्धकार तीनों का नाश हो जाता है इसी प्रकार साधु महापुरुषों के सेवन से पाप, संसृतिका भय और अज्ञान आदि नष्ट हो जाते हैं। जलमें डूबते हुए लोगोंको जैसे नौका उधार लेती हैं वैसे ही इस भयानक संसार-सागर में गोते खाते हुए मनुष्यों के लिये आत्म वेत्ता और शान्तचित्त महा पुरुष परम अवलम्बन हैं। जैसे प्राणियोंका अन्न ही प्राण हैं, वैसे भगवान ही आत-दुखियोंका आश्रय हैं और परलोकमें जैसे धर्म ही मनुष्य का धन होता है, इसी प्रकार संसार-भयसे व्याकूल मनुष्यों के लिये सन्त महापुरुष
SR No.522516
Book TitleJain Dharm Vikas Book 02 Ank 04 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichand Premchand Shah
PublisherBhogilal Sankalchand Sheth
Publication Year1942
Total Pages104
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Dharm Vikas, & India
File Size14 MB
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