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શ્રીગુરૂપષ્ટ પ્રદીપિકા. यति धर्म भंजन भय शोका, है अति सुख कर यह पर लोका। तेहि धर्म तुम शरणे जाओ, मन चिंता सब दूर भगाओ। एक दिवस जे दिक्षा पाली, मिले मोक्ष तिन संषय खाली। मंत्री बात मान कर राजा, कुंवर राज्य कर दीना साजा॥ मन भर दान नृपति पुनि कीना, नगर रंक नहीं जावत चीना। नगर मांहि सब मंदिर माहीं, किया महोत्सव अति हर्षाइ ॥ पुनि मुनिवर चरणन शिरनावा, दिक्षा तुरत नृपति अपनावा ॥ चतुर भोग त्याण तत्काला, बाइस दिन यहि भांति निकाला। पंचपरमेष्टी कर सुन्दर ध्याना, देह त्याग पहुचा निज धामा ॥
दूसरा भव समाप्त ॥ श्री गुरुप प्रदीपिका ॥
रचयिता-जैनाचार्य श्रीविजयपद्मसूरिजी.
॥आर्यावृत्तम ॥ वंदिय वीरजिणिद-गुरुवर सिरिणेमि सरिपयकमलं ॥ कयवरमंगलमालं-गुरुपट्टपईवियं कुणमो ॥१॥ सासणनायगवीरं-अजसुहम्मं विसिट्ठपुण्ण निहिं ॥ जंबू सामि पहवं-सिजभव मिजजसभेदं ॥२॥ संभूइ भद्द बाहू-वंदे सिरिथूलि भदै मिज्जपयं ॥ तप्पट्टहरे य दुवे-अज्जमहागिरि सुहत्थीसे ॥३॥ सुद्विय सुप्पडिबंद्धे-वंदे पवरिंद दिण दिग्ण गुरूं ॥ सीह गिरि वज्जसामी-थुणमो सिरि वज्जसेणें गुरुं ॥४॥ सिरिचसरि सामं-तर्रुद्द गुरु वुड्डदेवं सूरी से॥ पज्जोयण सूरीसं-णविमो सिरिमाणे देव महं ॥५॥ सिरिमाण तुंगरिं-वीरं जयदेवं सूरि मिज्जपयं ॥ देवाणंदं विक्कम-नरेंसीह समुइँ सरिवरे ॥६॥ सिरिमाणदेव विउँहे-पुज्जजयाणदै रविपहायरिए ॥ जसैदेवं पज्जुण्णं-वंदे सिरिमाणदेव महं ॥७॥