________________
७४
જૈનધર્મ વિકાસ.
॥श्री आदिनाथ चरित्र पद्य ॥
(जैनाचार्य श्रीजयसिंहसूरीजी तरफथी मळेलु)
(ગતાંક પૃષ્ઠ ૪૩ થી અનુસંધાન) यह सुन राजा आये कोषा, जाना पूर्व जन्न कर पोसा॥ देखकुंवर शांती कर लीनी, मणि माली मनमें यह चीनी। है यह पूर्व जन्म कर भाई, राज कोष तेहि नियत समाई ॥ पुनि ज्ञानी सन पूछी बाता, सुन कर बात पिछाने ताता । जैन धर्म तब तुरत सुनाया, अजगर सुन मन अति सुहाया॥ धर्म प्रभाव देह पुनि त्यागी, हुआ तुरत देव गति भागी। देव लोकमें तुरत सिधावा, पुत्र प्रेमवस पुनि यहां आवा॥ दिव्यहार मोतियनका भारी, सो दीना निज पुत्र संभारी। वही हार सोहत तुम राजा, बक्षस्थल पर रहत विराजा॥
तिनहि नृपति के वंसमें, भूषण तुम महाराज ।
सदबुद्धी के वंसमें, में हूं गरीब निवाज ॥ बिन अवसर में धर्म सुझावा, सोकारण सुनिये मन भावा ॥ आज गयामे नन्दन बनमें, तहां देखे दोय मुनिवर मगमें। महा तेज अति प्रतिभाषाली, निरख तेज मन हो हरियाली ॥ तिन दर्शन कर वंदन कीनी, वाणी सुनी धर्म रस भीनी। पुनि तुम आयु पूछ प्रमाणा, एक मास तब मुनिहीं बखाणा । यहि कारण सुनु श्रीमहाराजा, कहा करन धर्म कर काजा । यह सुन महाबल राजा बोले, धन्य मंत्री मम मन पट खोले। तुम सम मंत्री मिले जे राजा, अति बड़ भाग बनें सब काजा। सत्य धर्म तुम दिया बताई, धन्य मंत्रीवर तुम चतुराइ ॥
सत्य कहो अय मंत्रीवर, कोन धर्म में पाऊं।
मुझको सत्य बतायदे, धर्म रत्न को ठाऊं ॥ . अमर अल्प अति दुस्तर पापा, यासे मम मन हो संतापा। कहेउ मंत्री सुन श्री महाराजा, शांत चित्त हो कीजे काजा ॥