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________________ સમાજકા એકપક્ષીય ન્યાય. समाज का ऐकपक्षीय न्याय. ले. मुनि भद्रानंदविजय. (सेवाड़ी, मारवाड़) समाजरूपी रथ के साधुसमाज और श्रावकवर्ग ये दोनों मुख्य चक्र हैं। इन दोनों चक्रों की सुव्यवस्था एवं मुनियंत्रण पर ही समाज के अभ्युत्थान तथा अधःपतन का भार अवलंबित है। हमारी समाज के इतना अधिक हास होने का मुख्य कारण एक मात्र उसकी अव्यवस्था ही है । साधुसमाज और श्रावकवर्ग दोनों अपने उचित एवं अनिवार्य कर्तव्यों की उपेक्षा करने लग गये हैं जिसका परिणाम यह हुआ है कि आज हमारा नियंत्रण न तो साधुवर्ग पर ही रहा है और न श्रावकवर्ग पर ही। इसी नियंत्रणाभाव एवं अव्यवस्था के कारण उनमें स्वच्छन्दाचार की मात्रा ज्यादा घर करने लग गई है । यदि श्रावक पर साधुसमाज का और साधुसमाज पर श्रावक का कन्ट्रोल Control रक्खा होता तो समाज की इसप्रकार डांमाडोल स्थिति के होने का प्रसंग ही नहीं आता। किंतु पारस्परिक दृष्टिरागरूपी पिशाच ऐसा करने नहीं देता वह दृष्टिराग के भूल भूलैये में फंसाकर एक दूसरे की अनुचित प्रवृत्तियों की भी उपेक्षा करने के लिये प्रेरणा करता रहता है । कुछ भी हो ऐसा करना स्ववाद कुठाराघात के समान हैं साथ ही अप्रकट रूप से कुत्सित प्रवृत्तियों के साम्राज्य का पोषण कर उसे प्रोत्साहित करता भी है । हमारी समाज के कतिपय नायक श्रावकगण उचितानुचित, सत्यासत्य एवं यथार्थायथार्थ के निर्णय की समता रखते हुए भी वे वाडेबन्दी, पक्षपात या दृष्टिराग में पडकर एक पक्षीय निर्णय कर न्याय का गला घोंट देते हैं। यह किसी भी दृष्टि से समाज के लिये हितःवह नहीं है। इससे तो समाज रूपी रथ के दोनों परियों को कीटाणु लगते हैं और वे कीटाणु निकटतम भविष्य में ही खतरा उत्पन्न करनेवाले हो जाते हैं इतना ही नहीं किंतु अंदर ही अंदर पापों की वृद्धि होकर स्वपर अहितकारी भी है । समाज नायकों को एवं साधुवर्गको इस ओर अवश्य लक्ष देना चाहिये । यदि वे एक और लक्ष्य देकर एकांगी निर्णय ही कर लेते हैं तो बड़े भारी अधर्म एवं पाप का सेवन कर रहे हैं। हमारी दृष्टि से तो समाज को इतना ठोस एवं योग्य न्याय करया चाहिये कि जिससे फिर कभी कुत्सित घटनाओं एवं कुभावनाओं के उत्पन्न होने का पुनः प्रसंग ही नहीं प्राप्त हो । और समाज का भय साधु तथा साध्वी दोनों के हृदय में सतत बना रहे । जो साधु चारित्र भ्रष्ट होकर समाज में अन्याय एवं अत्याचार कर रहा हो, जो अपनी कुवांसनाओकी पूर्ति हेतु दूसरों को व समाज को लज्जित
SR No.522515
Book TitleJain Dharm Vikas Book 02 Ank 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichand Premchand Shah
PublisherBhogilal Sankalchand Sheth
Publication Year1942
Total Pages38
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Dharm Vikas, & India
File Size6 MB
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