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________________ नध विस. ॥शील कुलकम् ॥ कर्ता-श्रीजैनाचार्य श्री विजयपद्मसूरिजी. (itis पृष्ठ ८थी मनुसयान) सच्चसुहं चारित्ते-चायसरुवे ण भोगभोअम्मि। अंगे नवमे पत्तो-संसं धण्णो पहुमुहेणं ॥४३॥ भव्वा ? दव्वाईए-विसयाईए य जारिसो रंगो। जइ तारिसो ऽवि होज्जा-जिणधम्मे तयहिओ पुण्णा ॥४४॥ अप्पायासखणेण-होज्ज तया मुत्ति सुरक संपत्ती । धम्मो कल्लाणकरो-दुग्गइया विसयदव्वाई ॥४५॥ विसविसएसुय भेओ-अहिओ से पण्णवेइ भक्षणओ ॥ इगसो मारेइ विसं-बहुसो मारिति ते विसया ॥४६॥ आवेड्डिजइ जेहिं-जीवा घण चिकणाइ कम्मेहिं । विसपा ते णाअव्या-एसा चिंतिज दुप्पत्ती ॥४७॥ वीसासा विसयाण-पत्तदुहा रावणद्दपमुहणरा । पढमो चउत्थनिरए-भवम्मि भमिओ तहा बीओ ॥४८॥ विसयज्झाणा वि गओ-निरयं जइ रावणो तया भोगा । दुग्गइलाहे चोजं-किं ता सुक्खं विसयचाया ॥४९॥ . एगिदियविसयरई-जीवाणं देइ तिव्यदुक्खतई । : पंचिंदियविसयरई-दुग्गइमरणाइबहुदुक्खा ॥५०॥ हवइ करी फासेणं-करिणिं दटळूण कामपरतंतो। लहइ दुहं गड्डाए-एवं मच्छोवि रसगिद्धो ॥५१॥ सदसवणसंगेणं-मओ दुही होइ गंधओ भमरो । रूवपसत्तपअंगा-पडिय पईवे लहंति मिई ॥५२।। महिसी जग्गंताणं-णिद्दालूणं-तहेव महिस त्ति । गड्डरियपवाहपहं-अपमाओ होज सोऊणं ॥५३॥ निवकुंभाररमाओ-परोप्परं नेहसंशया दोणि । सययं मिलति गदिणे-दो णो मिलिया निवइ रमणी ॥५४॥ चिंतागया कहेए-दासी तुं गच्छ कुंभारीए । गेहं सा ण किमटुं-आगच्छइ तं पलोएज्जा ॥५५।। अपूर्ण
SR No.522514
Book TitleJain Dharm Vikas Book 02 Ank 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichand Premchand Shah
PublisherBhogilal Sankalchand Sheth
Publication Year1942
Total Pages36
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Dharm Vikas, & India
File Size9 MB
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