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શાસ્ત્રસમ્મત માનવધર્મ ઔર મૂર્તિપૂજા शास्त्रसम्मत मानवधर्म और मूर्तिपूजा.
( लेखक )-पूज्य मु. श्री. प्रमोदविजयजी म. ( पन्नालालजी)
(dis. ०४ ८ थी अनुसंधान ) तात्पर्य यह है कि संसार में ऐसा कोई कार्य नहीं है कि जिसको उपादान कारण की तो आवश्यकता रहे और निमित्त कारण का किंचित् भी अवलंबन न ग्रहण करना पड़े। जहां उपादान कारण है वहां निमित्त कारण भी अवश्य ही होगा, क्योंकि उपादान और निमित्त ये दोनों चचेरे भाइ हैं। चचेरे भाई ही कों माने जाय यदि सहोदर ज्येष्ठ और कनिष्ठ भ्राताही कहे जाय तो किसी प्रकार की अत्युक्ति नहीं होगी। उपादान कारणरुप ज्येष्ठ बंधु स्वाती पूर्त्यनंतर निमित्त का साथ छोड़ सकता है किंतु निमित्त कारण अपने ज्येष्ठ बंधु के साथ इसी प्रकार विश्वास घात कर कृतघ्नता का परिचय कदापि नहीं देगा प्रत्युत् उपादान की पुष्टि ही करता जायगा। उपरोक्त उदाहरणों से यह स्पष्ट प्रमाणित हो जाता है कि उपादान कारण में स्फूर्ति उत्पन्न करनेवाला निमित्त कारण ही है और उसकी आवश्यकता भी प्रचुर परिमाण में रहती है। इसी प्रकार मोक्ष प्राप्ति रूप कार्य में द्विविध चारित्र धर्म उपादान कारण होनेपर भी मूर्ति रूप निमित्त की अवश्य आवश्यकता रखते हैं कोंकि इसके विना स्वरूप ज्ञान कदापि नहीं हो सकता है। मूर्ति ही अनगार और अगार धर्म की पुष्टि में सहायिका है। और वही श्रुत धर्म तथा चारित्र धर्म का, देश विरति और सर्व विरति का पृथक् २ स्वरुप परिचय कराती है। मूर्ति का येन केन प्रकारेण स्वीकार किये बिना प्रवृत्ति क्रिया ही नहीं हो सकती है। अगार धर्म और अनगार धर्म इन दोनों का विकास मार्ग मूति के अवलंबन पर ही निर्भर है। जब तक साकार मूर्ति का अवलंबन नहीं लेंगे तब तक अरिहंत का स्वरुप ज्ञान भी नहीं हो सकेगा और न गुण ग्राम ही हो सकेंगे। आत्मा में सतत धर्म भावना जागृत रखने का मुख्य साधन पक भूति ही है।
वैसे तो आत्मा के साथ धर्म का अनादि कालीन संबंध सिद्ध है तथापि उस संबंध को स्थायी और दृढ़ बनाने के लिये किसी ऐसे अवलंबन की आवश्यकता रहा करती है जिससे वह आत्म विकास में सहायक हो जाय । आत्मा के साथ धर्म का जो संबंध है वह प्रमाद के कारण कभी प्रकट रुप में रहता है तो कभी अप्रकट रूप में। कभी जागृतावस्था में तो कभी सुप्तावस्था में तो कभी सर्वथा लुप्तावस्था में भी पाया जाता है। इस प्रमाद रूप आवरण के दूरीकरण का सरल और सुंदर उपाय मूर्ति का आधार ग्रहण करना ही है। इसके अवलंबन से न केवल विद्वज्जन समाज ही सत्यस्वरूप को पहिचान सकता है प्रत्युत् आबाल गोपाल भी धर्म मार्ग की और झुक कर कल्याण