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________________ આદીનાથ ચરિત્ર પહ नाम सुबद्धिनृपति सखा, बुलवाया महिपाल । सन्माना अति मित्रको, बोले वचन रसाल ॥ अहोमित्र तुमहो सब लायक, काम करो एक सब सुख दायक । जो तुम सुमा धर्मअरु ध्याना, सो सब मुझको कहो बखाना ॥ सुबुद्धी यह सुन सुख पावा, राजज्ञा निज सीस चडाया । सुन सुन धर्म सुनावे राजा, यही सुबुद्धी कीना काजा ॥ सुन नृपति अति श्रद्धा होई, जिम रोगि न औषधि सन होई । एक दिन नगर सिलंधर स्वामी, हुए केवली मोक्षहीं गामी ॥ रिषिवंदन आये तह देवा, करत महोत्सव सुरनर सेवा । सुबुद्धी यह वात, हरिश्चंद्र से जाय कही । सुन नृपति हर्षात, तुरत चला मुनिवर ढिग ॥ मुनिवर बंदन कर वह राजा, नत मस्तक मुनि चरण विराजा ॥ मुनिवर धर्म कहा बहु भांती, सुन नृप हृदय विराजी शांती । बोला नृप पुनि दोय करजोडी, स्वामी सुनिय अर्ज एक मोरी ॥ नाथ पिता मम थे अति पापी, कवन गति तिन पाई श्रांषी। तब बोले मुनि नाथ कृपाला, सप्तम नके गया बहु काला ॥ यह सुन नृप वेराग्य विचारा, मिठा मोह अरु हुआ उजारा । भवन आय बुलवाय कुमारा, देय ज्ञान सोंपा सब भारा ॥ सुबद्धी सन आज्ञा मागी, मंत्री अब में हाउं वैरागी । कहेउ मंत्री तब में वृत लेऊ, मेरा कार्य पुत्र कर देऊ॥ दोनो कुंवर बुलाय कर, समझाया सब ज्ञान। राज्य नीति अरु धर्मका, कीना बहुत बखान ॥ कुंवर धर्म पर श्रद्धा रखना, राज्य संभाल धर्म में रहना । सदबुद्धि हरिस्चंद, दोनों आये मुनि ढिग। धृत लीना सुख कंद, मोक्ष लाभ पावन किया ॥ तेही वंस एक दंडक राजा, हुआ प्रचंड जस हे यमराजा ॥ तिन कर पुत्र प्रतीभाशाली, तेहि नाम सुन्दर मणीमाली । दंडक पुत्रसु सुन्दर भारी.. बड़ा मोह कोषपुर नारी॥ उमर भोग मोह के कारण, जन्म भया कोष विष धारण । कोष निरक्षण जो कोइ आवे, ताको वह चटपट कर जावें ॥ अपूर्ण
SR No.522514
Book TitleJain Dharm Vikas Book 02 Ank 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichand Premchand Shah
PublisherBhogilal Sankalchand Sheth
Publication Year1942
Total Pages36
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Dharm Vikas, & India
File Size9 MB
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