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________________ જૈનધર્મ વિકાસ. - शास्त्रसम्मत मानवधर्म और मूर्तिपूजा ( लेखक )-पूज्य मु, श्री. प्रमोदविजयजी म. (पन्नालालजी) (dis. पृष्ठ 3४८ था अनुसंधान ) किं ते जटाहि दुर्मेध, किं ते अजिनसाडिया। अभितरं ते गहनं, बाहिरं परिमज्जसि ॥ जटाओमें या वस्त्रधारण करने में अथवा मस्तक मुंडाने में आत्मधर्म नहीं । आत्मधर्म गहन विषय है उसका सरल एवं अनिकाचित बंधन वाले ही रसास्वादन कर सकते हैं। जिस पाथेय (शम्बल, राहखर्च)को लेकर शिवपुरी की ओर प्रयाण करता है वह पाथेय भी एक प्रकारका नहीं किंतु मुख्य तया दो विभागों में विभक्त किया जा सकता है:-१ अनगार धर्मरूप पाथेय २ अगार धर्मरूप पाथेय । अगार धर्मरूप पाथेय का लक्ष्यबिंदु भी उसी स्थान से रहता है जिस स्थान से अनगार धर्मरूप पाथेयका संबंध है। कालक्रम से इनमें भले ही प्रारंभिक मेदसूचक व्यवधान पड़ जाय तथापि कियत्कालानंतर वह एक ही रूप में परिणत हो जाते है । और शिवपुरी का सबल पाथेय बनकर अवश्य वहांतक पहुंचाने में सहायक सिद्ध होता है। यद्यपि प्रारंभ में उस पाथेय के उद्गम स्थान अथवा प्रवाह स्थान द्वि भागों में विभाजित दृष्टिगोचर होते हैं तथापि आगे जाकर के मिल जाते हैं और एकरूप बन जाते हैं। अर्थात् अगार धर्म भविष्य में अनगार धर्ममय बनकर आत्मा की अभीष्ट सिद्धिका उपादान कारण हो जाता है। उपादान कारण के भी निमित्त कारणकी सहायता आवश्यक प्रतीत होती है उसके बिना उसकी प्रवृत्ति विधि भी कदापि नहीं हो सकती है। उदाहरणार्थ मिट्टी घट का उपादान कारण अवश्य है किंतु केवल मिट्टीके रख देने मात्रसे ही घट नहीं बन सकता है, उसके लिये उस उपादान (मुख्य) कारणमें सहायक भूत कुलाल (कुंभकार) दंड, चक्रादि सकल साधनोंकी सहायता लेना अनिवार्य हो जाता है और उस सहायता के प्राप्त होनेपर ही घट की उत्पत्ति की संभावना की जा सकती है । यदि इन निमित्तों की सहायता न ली जाय तो क्या घड़ा घट रूप को धारण कर सकता है ? कदापि नहीं। इसी प्रकार बीज वृक्ष का उपादान कारण है, बिना बीज के वृक्ष कदापि नहि हो सकता है, यह सर्व सम्मत है तथापि क्या वह बोज, पृथ्वी, मिट्टी, पानी, वायु, आकाश, आदि निमित्तों के बिना ही वृक्ष रूप में पनप सकता है ? नहीं, कारण यद्यपि बीज में वृक्ष की शक्ति प्रच्छन्नरूप से रही हुई है, किंतु निमित्तोंके अभाव में वह शक्ति कार्यरूप में परिणत नहीं हो सकती है। जिस प्रकार गति प्रसंग सूचक सेनाधिपति के अभाव में सेना रणसंग्राम में विजय नहिं प्राप्त कर सकती है। अपूर्ण.
SR No.522513
Book TitleJain Dharm Vikas Book 02 Ank 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichand Premchand Shah
PublisherBhogilal Sankalchand Sheth
Publication Year1942
Total Pages44
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Dharm Vikas, & India
File Size4 MB
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