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________________ ૩૫૮ धर्म विस जीवहिंसा निरोध में मुनिश्री की आदर्श सेवा ले कस्तुरचंद जैन विज्ञ पाठको ! यह तो लोक प्रचलित मान्यता है कि जैन धर्म बहुत पवित्र, आदर्श, उज्वल' एवं कलंक कालिमा विहीन धर्म है। इसके सार्वभौमिक अहिंसा तत्व की गंभीर छाप अधिकांश जनसमुदाय के हृदय पर पूर्णतया अंकित है वास्तव में अहिंसा तत्व का सूक्ष्मातिसूक्ष्म निरूपण एवं प्रतिपादन जितना जैन शास्त्र में किया गया है उतना अन्य किसी भी शास्त्र में नही है। हमारे साधु समाज के जीवन का वह अचल सिद्धान्त होते हुए भी लोक में इसका जितना अधिक प्रचार होना चाहिये उतना नहीं हो रहा है इसका मुख्य कारण यही है कि श्रमण वर्ग ने केवल स्वार्थ जनित अहिंसा पालन में ही अपना सर्वस्व समझ लिया है और उस सूक्ष्म अहिंसा की ओट में स्थूल हिंसा रक्षण की उपेक्षा सी हो गई है। वैसे यदि परमार्थ दृष्टि से विचार किया जाय तो हिंसा मात्र त्याज्य है चाहे वह सूक्ष्म हो चाहे स्थूल. किंतु सूक्ष्म हिंसा की रक्षा को अधिक महत्व दे देना और प्रकट स्थूल हिंसा रक्षण की ओर अल्प मात्र भी लक्ष्य न देना नितान्त न्याय विरुद्ध है। बंधुओ ! अब वह चौदहवीं शताब्दी का जमाना नहीं रहा अभी तो वीसवी शताब्दी प्रवर्त रही है समाज में भी ६-७ शताब्दी से रूपान्तर होता जा रहा है और वह पूर्व कालकी अपेक्षा अभी कुछ आगे बढ़ गया है। बीसवी शताब्दी के समाज के समक्ष चौदहवीं शताब्दी की वाते अब रुचिकर एवं महत्व पूर्ण नहीं सिद्ध होगी। अब तो कुछ ऐसे कार्य कर दिखाने चाहिये कि जिससे वीसवीं शताब्दी का नवयुवक समाज भी हमारे प्रयत्नों में सहमत होकर सह योग प्रदान कर सके। ऐसा होने पर ही हम अपने प्रयत्न में पूर्ण सफल हो सकेंगे और लोक कल्याण की जो हमारी भावना है उसकी कतिपयांश में पूर्ति हो सकेगी। अरे ! अब तो श्रमण वर्ग को भी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को अभि मुख रख कर एवं निजाचार रूप कर्तव्य में परायण होकर ही किसी जनसमाजोपयोगी विषय का प्रतिपादन करते रहना चाहिये इससे समाज सुधार मार्ग की ओर अवश्य प्रवृत्ति करेगा। कारण जबतक नायक का लक्ष्य सुधार की ओर या उच्च ध्येय की ओर न होगा तब तक प्रजा पर उसका यथावत् प्रभाव अंकित न हो सकेगा। वर्तमान में समाज की गतिविधिको देख कर इतना तो सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि आधुनिक समाज जागृति के आंदोलन से, व श्रावक वर्ग में नृतन चैतन्य भाव का संचार हो जाने से व साधु वर्ग में नवीन प्रवाह प्रवाहित हो जाने से अब किंचित् मात्रा में श्रावक वर्ग ओर श्रमण समाज का ध्यान विशेषरूप से जीव रक्षण की ओर आकृष्ट हुआ है। इस का कुछ श्रेय हमारे उन मुनिवरों के पल्ले पड़ता है जो कि इस ओर तन मन देकर पूर्ण
SR No.522512
Book TitleJain Dharm Vikas Book 01 Ank 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichand Premchand Shah
PublisherBhogilal Sankalchand Sheth
Publication Year1941
Total Pages36
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Dharm Vikas, & India
File Size8 MB
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