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જૈનધર્મ વિકાસ
और तदनुसार आचरण करना चारित्र है । प्रत्येक विपत्तिसे छूटने के लिये इन तीनोंकी जरूरत (आवश्यकता) है जैसे कोई बीमार आदमी बीमारीसे छूटना चाहता है तो उसे इस बातका दृढ़ विश्वास अवश्य होना चाहिये कि मुझे बीमारी है और बीमारी से छटा जा सकता है इसके बाद निदान और चिकित्साका ज्ञान होना चाहिये । इसके बाद आचरण होना चाहिये । तब बीमारी दूर होगी । इन तीनों में से एक की भी कमी होगी तो वह निरोगी न हो पायगा । सुखके लिये भी इन तीनों बातों की आवश्यकता होती है।
उपरोक्त तीन साधन आत्मा के अनंत गुणों में ये तीन गुण मुख्य है ये आत्माके ही स्वरूप है इनमे प्रदेश-भेद नहीं है, सिर्फ गुण-गुणी की अपेक्षा ये न्यारे न्यारे कहलाते हैं । जैसे समुद्र वायुके वेगसे उठी हुई लहरों की अपेक्षा अनेक रूप दिखाई देता है परन्तु उन लहरों की और समुद्रके बीच प्रदेशों की अपेक्षा कुछ भी अन्तर नही रहता उसी प्रकार आत्मा और सम्यग्दर्शनादि में प्रदेशों की अपेक्षा कुछ भी अन्तर नही रहता । वस्तुदृष्टि से जिस तरह अनेक लहरें समुद्ररूपही हैं उसी तरह सम्यग्दर्शनादि भी आत्मरूपही हैं । 'जातौ जातौ यदुत्कृष्टं तद्रत्नमिहोज्यते ? इस नियमके अनुसार आत्मगुणों में सर्व-श्रेष्ट होने के कारण उक्त तीन गुण ही 'रत्नत्रय' कहलाते हैं। इस तरह जैन समाज में रत्नत्रय का अर्थ सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र प्रचलित है। जिनमें प्रथम सम्यग् दर्शनका विशेष स्वरूप लिखा जाता है। कि अनादिकाल से इस आत्मा का परपदार्थों के साथ सम्बन्ध हो रहा है, जिससे वह अपने स्वरूप को भूल कर पर-पदार्थो को अपना समझ रहा है कभी यह शरीर को अपना समझता है और कभी कुछ विवेकबुद्धि जाग्रत होती है तो शरीर को पृथक् पदार्थ मान कर भी कर्म के उदय से प्राप्त होने वाले सुख-दुख को अपना समझता है जिससे यह आत्मा अत्यन्त दुखी होता है । मैं सुखी हूँ. दुःखी हूँ. निर्धन हूँ, धनाढ्य हूँ, सबल हूँ, निर्बल हूँ ये मेरे सगे सबंधी हैं इत्यादि विकल्प जाल से उलझा हुआ यह जीव अपने आपको शुद्ध स्वरूप को भूल जाता है । जीव की इस अवस्थाको 'मिथ्यादर्शन' कहते हैं । मिथ्यादर्शन वह अन्धकार है जिसमें यह आत्मा अपने आपको नही पहिचान सकताः उदाहरणार्थ एक सिंह का बच्चा छुटपन से सियारों के बीच पला था। जिससे वह अपने आपको भी सियार समझने लगा था। जब कभी गजराज सामने आता तो वह भी अन्य सियारों की तरह पीछे भाग जाता था एक दिन वह पानी पीने के लिये नदी के तीर पर गया । ज्यों ही उसने पानी में अपना प्रतिबिम्ब देखा त्यों ही वह अपने आपको सियारों से भिन्न अनुभव करने लगा । वह उसी समय सियारों की संगति छोड कर सिंहो में जा मिला । अब वह गजराज को देख कर पीछे नहीं हटता किन्तु झपट कर उसके मस्तक पर बैठता है । इसी तरह जबतक यह आत्मा-मिथ्यादर्शनरूप