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જૈનધર્મ વિકાસ
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॥ आदीनाथ चरित्र पद्य॥ ( जैनाचार्य जयसिंहसूरी तरफथी मळेलं )
| (અંક ૭-૮ પૃષ્ઠ ૨૦૧ થી અનુસંધાન) धर्मकहा आचार्य वर, धर्महे चार प्रकार । दान शियल तप भावना, हे सब मोक्षदुवार ॥ प्रथम ज्ञानको कहूं बखानी, सुन श्रावक श्रद्धालु ज्ञानी। ज्ञान अभयधर्मत्रय मारग, दान करणेके धर्म प्रचारक ॥ धर्महीनको ज्ञान सिखाये, हित अनहित सब बात सुनावे । ज्ञानहोतनर तत्वपिछाने, केवल ज्ञान मोक्ष पद माने ॥ द्वितिय अभयदान में गाऊं, सुन श्रावक सब भेद सुनाउं । हिंसक को सत्मार्ग बताना, हिंसक वृति दूर भगाना ॥ परमोधर्म अहिंसा भाई, प्राणी अभय करहू जग माही। किसी जीवको कष्ट न देना, अभयदान शीस. घर लेना। धर्म दान महिमा कहू, हे यह पंच प्रकार । दायक ग्राहक देय अरु, काअ भाव सबसार ॥ न्याय उपार्जनधन करदाना, दायक दान ताहि करमाना। सद्भावना रहे घट माहीं, चारित्र ज्ञान दर्शन जिनभाई ॥ सत्रह संयम शीलवृतधारी, ग्राहकदानके ते अधिकारि । आसन अन्न वस्त्र संथारा; देय शुद्ध दान यह न्यारा ॥ योग्य समय जो देवत भाई, कामदान सुन्दरश्रुति गाई। रहितकामनाश्रद्धाकारी, भाव शुद्ध दान यह भारी ।। शियल वृतमहिमा अति भारी, ब्रम्हचर्यताहि अधिकारी। भोगोपभोगविरतिवृत राखे, दिगविरति मन कायम राखे । अनर्थ दंड विरति मन राखो, गुणवृतमुख्य शीलहे चाको। तपमहिमाअतिकठिनहे, बायहः अभ्यंतर भेद । कर्म तपावत तप कहे, पढ षढहे जिन भेद ॥ उनोदरी अनशन रस त्यागा, वृतिसंक्षेप संलीन विभागा। काय क्लेशतप बाह्य कहावे, अभ्यंतर तप श्रुति इमिगावे ॥ कायोत्सर्ग विनय शुभ ध्याना, प्रायस्वित स्वाध्याय वखाना । धर्मभावना मनमें भावे, शुद्ध भावसे फलहोजावे ॥