SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 10
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०४ જૈન ધર્મ વિકાસ बन सके हैं। श्रमण भगवान् महावीर ने तो धर्म कृत्य का परमोत्कृष्ट फल बतलाते हुए उसे सर्वोच्च मंगलकारी कहा है। देखियेः धम्मो मंगलमुक्किएं, अहिंसा संजमो तवो। देवावि तं नमसंति, जस्स धम्मे सया मणो॥ अर्थात् अहिंसा, संयम और तपरूप धर्म ही परम मंगलमय है जिसका धर्म में सतत मन लगा रहता है देवगण भी उसके चरणों में मस्तक झुकाते हैं। ऐसे तो संसार में अनेक मांगलिक कार्य हैं किंतु वे लौकिक कार्यों से ही संबंध रखने वाले होने से विशेष महत्वपूर्ण नहीं माने जा सकते हैं। धर्मसंबंधी मांगलिक कार्य ही इहलोक एवं परलोक में मंगलकारी होने से उल्लेखनीय हो सकता है। धर्म मानव समाज को कर्तव्य का पाठ पढा कर तदनुसार प्रवृत्ति करने के लिये प्रेरित करता रहता है। साथ ही कर्तव्यच्युत व्यक्तियों को नानाविध प्रयत्नों से पुनः कर्त्तव्य पद पर स्थापित करता है। धर्म का अवलंबन लेने पर मानवगण कदापि कर्त्तव्य विमुख नहीं बन सकते हैं, क्योंकि कर्त्तव्यशून्य धर्म और धर्मशून्य कर्त्तव्य पृथक् २ नहीं रहते हैं। ___ सांसारिक संपदाएं और भौतिक (पौद्गलिक) सुख को उत्पन्न करने वाले विविध साधन चिर आत्मशांति के बाधक एवं घातक हैं उनमें मूर्छाभाव रख कर उक्त धर्मभाव को भूल जाने से जीव सब प्रकार से कम बंधन कर दुःखी ही होता है। कहा भी है किः कायसा वयसा मत्ते, वित्ते गिद्धे य इत्थिसु। दुहओ मलं संचिणइ, सिसुणागो व्व मट्टियं ॥ वित्तेण ताणं न लभे पमत्तो, इमम्मि लोए अदुवा परत्था। जैसे अलसिया चिकनी मिट्टी में ही उत्पन्न होता है और चिकनी मिट्टी को ही खाता है तथा उसी चिकनी मिट्टी के सूख जाने पर वह उसमें ही सिकुड़ कर मर जाता है उसी प्रकार मनुष्य मन, वचन तथा काया से स्त्री और धन में गृद्ध बन कर बाह्य और आभ्यंतर प्रवृत्ति से रागद्वेषात्मक कों का ही बंधन करता रहता है किंतु मरणावस्था के प्राप्त होने पर वे संपदाएं किसी भी प्रकार से आत्मा का उद्धार करने में समर्थ नहीं हो सकती हैं। उक्त गाथा में सन्निहित तत्व को ही अपना जीवनमंत्र बनाना चाहिये, जिससे उन पौद्गलिक वस्तुओं का परिचय होने पर भी मोहदशा और मूभिाव की जागृति न होकर जीवन का लक्ष्य आदर्श बन जाय। इसी लक्ष्य के अनुसार प्रवृत्ति करते रहने से स्वपरकल्याण सहज ही हो सकता है। वास्ते यदि आत्मा को सुसमाधिवन्त बनाना हो, चिरशांति सुख का आनन्द लूटना हो तो एक धर्म का अवलंबर लेने पर हो ये सब मनोकामनाएं पूर्ण हो सकती हैं। यह तो एक प्रकृतिसिद्ध निश्चित नियम है कि जन्म के साथ मरण भी अव श्यंभावी है, और वह मरण भी तब तक नहीं छूट सकता जब तक कि केवली भरणावस्था प्राप्त न हो। शास्त्रकारों ने भी कहा है किः अपूर्ण
SR No.522507
Book TitleJain Dharm Vikas Book 01 Ank 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichand Premchand Shah
PublisherBhogilal Sankalchand Sheth
Publication Year1941
Total Pages52
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Dharm Vikas, & India
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy