SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 9
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ શાસ્ત્રસમ્મત માનવધર્મ ઔર મૂર્તિપૂજા १७५ शास्त्रकारों की दृष्टि में निर्गध किंशुक के पुष्प के समान व्यर्थ ही है। जैसे किंशुक का फूल बाह्याकृति से तो रमणीय प्रतीत होता है किंतु सुगंध हीन होने से उसकी सारी रमणीयता अनुपयोगी हो जाती है इसी प्रकार मानव शरीर रूपी किंशुक पुष्प ऊपर से बहुत सुंदराकार दिव्य एवं रमणीय प्रतीत होता है किंतु धर्म रूपी सुगंध के अभाव में वह दिव्यता भी हेय है। वास्तव में उज्ज्वल, आदर्श, तथा पवित्र धर्मपरायण व्यक्ति ही संसार की बहुमूल्य मणि है। धर्मशून्य मानव रूप को पशुतुल्य बतलाते हुए कवियों ने कहा है किः जिसको न निज गौरव तथा निज धर्म का अभिमान है। वह नर नहीं नरपशु निरा है और मृतक समान है ॥ . जिस व्यक्ति के हृदय में धर्म की उज्ज्वल ज्योति नहीं जगमगा रही है, जिसके हृदय में धर्म के प्रति वात्सल्य भाव नहीं है और न धर्म का अभिमान ही है वह मानवशरीरधारी पशुतुल्य ही है। “धर्मो हि तेषामधिको विशेषो धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः" की उक्ति के अनुसार मानवता और पशुता की पहिचान कराने वाला एक धर्म ही है। यदि मनुष्य में पशुओं की अपेक्षा इतनी विशेषता न होती तो मानवता का कुछ भी महत्व नहीं रहता। प्रकृति को भी ऐसा करना उचित नहीं प्रतीत हुआ इसलिये उसने भी दोनों के पृथक्करण के लिये इतनी विशेषता तो डाल ही दी। अपूर्ण ( अनुसंधान पान १७४ था) गुणिजणसंसइजुग्गं-न कयं सुकयं तईयभावाणं । एमेव गओ समओ-पमायकलियाण मम्हाणं ।।७७।। सत्थब्भासो नमणं-पहुचरणाणं महजणसंगो। सव्वुत्तयणगुणकहा-मोणं परदोसकहणम्मि ७८।। सव्वीयसदभासा-कोऽहं किं मे सरूव मिचाइ । अप्पियतत्तवियारो-भवे भवे सत्तिमे होजा ॥७९॥ मुणिणिहिणं दिदुमिए-विकमवरिसे य कत्तियजदिणे । कप्पडवाणिजउरे-बहुदिक्खियरयणजलहिनिहे ।।८०॥ तवगच्छगयणभक्खर-गुरुवरसिरिणेमिसूरिसीसेणं । कल्लाणकरणथुत्तं-रइयं लहुसरिपउमेणं ॥८१॥
SR No.522506
Book TitleJain Dharm Vikas Book 01 Ank 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichand Premchand Shah
PublisherBhogilal Sankalchand Sheth
Publication Year1941
Total Pages28
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Dharm Vikas, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy