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________________ १८० જૈન ધર્મ વિકાસ सरलता पत्र लेखक. मुनिहेमेन्द्रसागर (ii१०४ १५७ थी यातु) समान गुण वाले आत्माओं का हित हो ऐसी प्रवृत्ति निरंतर करनी चाहिए। शरीर, रूप, धन, घर, तो अवश्य छोडना पडता है । धरके साथ सामान और वैभव और पडोसियों की ममता को भी त्यागना पडता है। उसी तरह मन बढंत कल्पना मय सम्बन्ध का अनिच्छा सें त्याग करना होगा। _ आत्मा का सहजगुणके सिवाय कोइ सच्चा स्नेही (सम्बन्धी) नहीं है। जो जो साधन सम्पत्ति प्राप्त हुई वह सब पुण्याधीन मानकर भगवान के चरणोंमे चित्त लगाना यहीसच्चा सार है। (क्रमशः) सच्चा सार है। अनेक साधन होने पर भी श्रीजिनेश्वरदेव के चरणों मे सच्ची लीनता न हो तो साधन क्या काम के है ? शरीरं सुरूपं ततो वै कलत्रं, यशश्चापि चित्रं धनं मेरु तुल्यम् । मनश्चेन्न लग्नं प्रभो रंघ्रि पद्ये, ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ॥१॥ - सरल आत्मा अपने हित के लिये सर्वदा तत्पर रहता है और अन्यों का हित भी प्रेमपूर्वक करता है। जो अपना हित करता है वही दूसरों का भी हित कर सकता है। आत्मा को दुर्गुणों से दूर रख कर सद्गुण प्रवृत्ति करना यही सच्चा हित शास्त्रों में माना गया है। सरल आत्मा धर्म रक्षण भी कर सकता है। कभी धर्म रक्षण में कठोरता देखी जाती है परन्तु वास्तव में किसी आत्मा के प्रति अन्तःकरणमें द्वेष को कभी स्थान नहीं दे सकता, ऐसी स्थिति में रहा हुआ सरल आत्मा प्रशंसनीय है। स्कन्दक मुनि पांचसौ शिष्यों को मुक्ति मे भेज सके परन्तु जब उनकी अपनी आत्मा मोहवश हो कर कलुषित हो गई तब उनका भी पतन हुआ। विष्णुकुमारने धर्म रक्षण के लिये नमुचि के प्रति जो बर्ताव किया उन में अन्तर दृष्टि से देखा जाय तो अन्तःकरण जैसा का बैसा ही निर्मल था। आज के मुनिवर धर्म रक्षण भी कर शक्ते हैं और अपना आत्म लक्ष भी शुद्ध रख सकते है। सर्व आत्माओं के प्रति समभाव रखना वही सच्चा पंडित माना गया है। मातृवत् दारेषु, पर द्रव्येषु लीष्टवत् । आत्मवत्सर्व भूतेषु, यः पश्यति सः पंडितः ॥१॥ अपूर्ण.
SR No.522506
Book TitleJain Dharm Vikas Book 01 Ank 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichand Premchand Shah
PublisherBhogilal Sankalchand Sheth
Publication Year1941
Total Pages28
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Dharm Vikas, & India
File Size8 MB
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