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________________ ૧૭૮ જૈનધર્મ વિકાસ शास्त्रसम्मत मानवधर्म और मूर्तिपूजा ( लेखक )-पूज्य मु, श्री. प्रमोदविजयजी म. (पन्नालालजी) सुचिंतितं चौषधमातुराणाम् न नाम मात्रेण करोत्यरोगम् ॥ जिस प्रकार खूब परीक्षा के पश्चात् रोग के निदान को जान कर दी, जाने वाली दवाई के नाम रटन से या शब्द ज्ञान से रोगी का रोग दूर नहीं हो सकता है किंतु उस औषधि के पान करने पर ही रोग मिटने की संभावना रहती है उसी प्रकार विविध भाषाओं का थोथा शब्दज्ञान जन्म मरणरूप असाध्य रोग को मिटाने में कदापि समर्थ नहीं है। भगवान् महावीर ने तो ऐसे लोगों को-जो कि मुंह से बड़ी २ ऊंची डींगें हांक कर दूसरों के सामने उच्च सिद्धान्तों का प्रतिपादन करते हैं और स्वयं उनका अंशमात्र में भी अनुष्ठान नहीं करते हैं-वाग्वीर्य धारक ही बतलाये हैं अर्थात् वे केवल वाणी वीर्य के धारक ही हैं। कथन करना ही उनको आता है किंतु आचरण करना नहीं। जो धर्मानुष्ठान का आचरण नहीं करता है उसका भी भला कहीं आत्म कल्याण हो सकता है ? या हुआ है ? क्या कभी हमारे पूर्वज महापुरुषों, अरिहंतों, सिद्धों, आचार्यो, श्रावकों एवं गुरुओं ने अनुष्ठान के बिना ही इतना उच्च पद प्राप्त किया है ? जो मनुष्य अनुष्ठान के बिना केवल शब्दज्ञान द्वारा ही आत्मोन्नति की अभिलाषा रखता है वह सर्प के मुख से अमृत की, पत्थर से समुद्र तिरने की, अग्नि से शीतलता की, चन्द्रमा से उष्णता की एवं नरक योनि से मोक्ष की इच्छा रखता है। जिस प्रकार समुद्र को पत्थर से तिरना असंभव है, सर्प के मुख से अमतका झरना कल्पना बाहिर है, अग्नि से शीतलता की आशा रखना व्यर्थ है, चंद्र का उष्ण रश्मि होना कठिन है और नरक गति से मोक्ष प्राप्त करना असंभव है उसी प्रकार भाषा ज्ञान से आत्म कल्याण होना भी असंभव ही है। वास्ते ज्ञान के साथ २ अनुष्ठान भी आवश्यक है। शब्दज्ञान स्वार्थ पोषण एवं उदर भरण का सहायक भले ही हो सकता है किंतु आत्म रक्षक नहीं। आत्मरक्षक धर्म उसमें तभी आ सकता है जब कि वह अनुष्ठान की डोरी से बंधा हुआ हो। कहा भी है किः-जहा खरो चंदन भारवाही; भारस्स भागी न हु चंदणस्स एवं खुनाणी चरणेण हीणो भारस्स भागी महि सुग्गइप। धर्म यह एक व्यक्ति की पैतृक जीवनसंपत्ति नहीं है किंतु सकल समष्टि का जीवन धन है वास्ते उसके अधिकारी सब हैं । इत्र या चंदन के समान जिसका जीवन स्वयं सुगंधित होकर दूसरों को सुगंधित करता है वही सच्चा धर्मात्मा है और वही सच्चा विद्वान् भी है। अनेक राजा महाराजा गण अखूट संपत्ति सम्पन्न, महान् सत्ताधीश और सुप्रसिद्ध पदवी के धारक होते हुए भी धार्मिक प्रवृत्ति के बिना उनका जीवन
SR No.522506
Book TitleJain Dharm Vikas Book 01 Ank 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichand Premchand Shah
PublisherBhogilal Sankalchand Sheth
Publication Year1941
Total Pages28
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Dharm Vikas, & India
File Size8 MB
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