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________________ એક પંથ દે કાજ पयांश सद्धर्म हेतु व्यय करने के उद्देश्यसे यहां के श्रीमान् सेठ हजारीमलजी जवानमलजी कोठारी अत्यन्त आग्रह पूर्ण विनती के साथ आचार्य श्री को अपनी शिष्य संपदा सहित शिवगंज से बांकली समारोह पूर्वक लाये। जिस सदुद्देश्य से आपने आचार्य देव को पदार्पण कराया उसकी पूर्ति वर्तमान में कार्यरूप में परिणत होती हुई प्रत्यक्ष ही दृष्टि गोचर हो रही है। आप यहां के प्रतिष्ठित, गण्य, मान्य एवं योग्य सद्गृहस्थ है । आपकी उदार चित्तवृत्ति का परिचय आपके इन विशाल कार्यों से ही हो जाता है । लक्ष्मी और उसके सदुपयोग की उक्ति जैसी कि एक प्रसिद्ध कवि ने की है यहां सर्वथा सर्वाशों में घटित होती है: कमला विलास विलोल कर चपला प्रकाश समान है। धन लाभ कर साफल्य बस सत्कार्य विषयक दान है ॥ __धन प्राप्त करना उन्हीं का सार्थक है कि जिनके द्वारा किसी सत्कार्य को प्रेरणा मिली हो । संसार में प्रायः देखा जाता है कि जिनके पास लक्ष्मी है या तो वे संकुचित (कंजूस) वृत्ति वाले बन जावेंगे या स्वार्थ साधन में ही सर्वस्व व्यय करदेंगे किंतु परमार्थ तत्व को स्वप्न में भी स्मरण नहीं करते हैं । धन लाभ और उसका विवेक पूर्ण यथार्थोपयोग का संबंध सुविचारकता से विशेष है। तप प्रबंध भार वाहक उक्त शेठजी उन लक्ष्मी पात्र व्यक्तियों में नहीं है जिनको कि स्वार्थमात्रा ही सतत सताती रहती है। आपका जीवन ध्येय परमार्थ और धर्म की ओर विशेष है । साथ ही सुविचारकता भी कूट २ कर भरी हुइ है। धन वाले मदवाले हो जाते है यरु जो लोकोक्ति संसार में प्रचलित है उसके आप अपवाद स्वरूप हैं। धार्मिक उत्सवों और धर्म प्रभावना के निमित्त आप विवेक पूर्वक खर्च करने में कदापि संकोच नहीं करते है। आपका व्यापार व्यवसाय बेंगलोर सीटी में है। इस उपधान कार्य में सारा कुटुम्ब तन, मन और धन से श्री संघ की सेवा और भक्ति खूब हर्ष के साथ कर रहा है। श्रीमंत होने पर भी स्वयं खूब परिश्रम उठाकर अपने हाथों से श्री संघ की सब प्रकार से सेवा करना यह मेंने आपके जीवन में मुख्य विसेषता देखी है कारण श्रीमंतपने के साथ परिश्रम का और सेवा का छत्तीस का आंक है अर्थात् पूरा विरोध है किंतु आपके जीवन में जो दोनों संयोगो का सुंदर एकीकरण हुआ है वह संभव है किसी नवीन ढंग के अच्छेरे का ही सूचक हो ? धन्य है ऐसे श्रावक रत्नों को जो कि इस प्रकार चंचल लक्ष्मी से लाभ उटाकर धर्म प्रभावना के वृद्धि की विशेष आकांक्षा और उत्कंठा रखते हैं। इतना ही नहीं शास्त्रकारों ने तो धर्मप्रभावना को समकित दृढ कारिणी और यावत् उच्च फल प्रदायिनी बतलाई है।
SR No.522505
Book TitleJain Dharm Vikas Book 01 Ank 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichand Premchand Shah
PublisherBhogilal Sankalchand Sheth
Publication Year1941
Total Pages28
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Dharm Vikas, & India
File Size8 MB
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