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________________ સાચા સુખ प्राचिन समय में महात्माएं जीवनमुक्तिके कारणभूत कर्मको वासना से वह सूखमूलक है एसा समजने में प्रायश्चित समजते थे क्योंकि संसार में हरेक कर्म जीबननिर्वाह से लेकर धर्मादिक में भी वासनायुक्त पालन करने से कष्ट होता है उससे अभिमान रागद्वेष इत्यादिक नाना प्रकारकी उपाधीयां प्राप्त होती है अतः उन्नति में अंतरायरुप वासनाको हटाकर कर्म करना वह सच्चा सुख है पदार्थ उपभोग कालमें जीतना आनंद देता है. इस नियमानुसार वासनाको हटाये बिना त्यागकाल में उतना कष्ट देता है अतः मनुष्योंने भी कर्मका फलाफलको उनसे उप्तन्न होनेवाले नये कर्मको विचारे कर पीच्छे उनको कितना ग्रहण करना कितना त्याग देना उनका नियम बनाकर प्रवृति करनी उचित है कोई लोक समजते है कि इन्द्रियकर्मको त्याग करना, पदार्थ का अमिग्रह धरना उनसे वासनाका क्षय हो जायगा और आनन्दसुखका अनुभव प्राप्त हो जायगा परन्तु यह बाबत भी योग्य नही है. एसी प्रवृत्ति करने में कुच्छ सभय आनन्द मीलता है, चारित्र्यादिक धर्म बढते है परन्तु जब मनोवेग वासनाधीन होकर के बढता है तब आनन्दमय सब क्रिया दुःखरुप हो जाती है भनुष्यका शरीरधर्म जबतक शरीर रहता है तबतक नष्ट नही होता है, सब पदार्थका त्याग उनमें भी वासना त्याग करना वहही त्याग है बस एसा त्यागसे सच्चा सुख मिलता है पदार्थ और उनका फलका सुखदुख पूर्णरुपसे समझे बिना त्याग में भी मनुष्य सुख नही पा शकता है अतः त्याग में भी शरीरको वासमायुक्त न बना कर, धर्मकर्मो में मानी हुई, तपश्चर्या, शुद्ध चारित्र इत्यादिक नियम पालन करना, इस. नियमादिसे आत्माको अपना स्वरुपमें स्थापन करना वह सच्चा सुख है इस विषयमें एक कहानी कहते है पूर्वकालमें एक गृहस्थ था वह सम्पति से पूर्ण सुखी था उनके वहां बहुत नौकरलोक उसकी आज्ञाको उठानेके लिये हरदम हाजर रहते थे खाल साधन से वहपूर्ण सुखी थे परन्तु उसको प्रत्येक कार्यमें चिंता बहुत व्यग्र करती थी, मनुष्यका साथ पूर्ण था तो भी वह हरदम चिंतातुर रहता था उसकी स्त्री पूर्ण प्रातिकत्या धर्मपूर्णा थी और उसके आज्ञावश बनकर हमेश पास रहती थी भोगसाधन और लक्ष्मीकी पूर्णता थी परन्तु कुदरती सुखसे वह वन्चित थे उसके घरकी पास एक कुंभार प्रभुका भक्त था और हमेश अपना उद्यमसे प्राप्त कीये हुए धनसे प्रतिदिन गुजारा करता था. सामको
SR No.522503
Book TitleJain Dharm Vikas Book 01 Ank 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichand Premchand Shah
PublisherBhogilal Sankalchand Sheth
Publication Year1941
Total Pages50
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Dharm Vikas, & India
File Size9 MB
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