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________________ ८४ જૈન ધર્મ વિકાસ वह अपने जैसे दो चारको एकठा करके रात्रिमे मस्त होकर ईश्वरध्यान करता था, शेठजी सम्पति और मनुष्य समूह पासमें होते हुवे भी महा कष्ट और चिन्तातुर रहते थे और कुंभार सम्पतिरहित था तो भी जीवन आनंद से पसार करता था. एक दिन रात्रीमें शेठको बहुत कामसे मगज भ्रम बना था और शष्या पर निंदके लिये बहुत जंखना करते थे परन्तु विचारोंसे उसको निन्द आती नहि थी वह समय पर कुंभार अपने मित्रोके साथमें भजन और ईश्वरकी स्तुतिमें मशगुल बना था उसका अवाज शेठको सुनाई पड़ा शेठ थोडा समय अपने विचारोंको भुल गये और उसका भजनतानको सुनते सुनते सो गये. शेठको बहुत दिनके जाग्राहासें शरीर रोंग पूर्ण था वह एकदम अच्छा हो गया प्रातःकालमें शेठ जाग्रत होकर कहने लगे अरे, आज क्या हो गया मेरा बहुत दिनसें शरीर दुःखी था वह अच्छा हो गया तब उसको उन कुंभार का ईश्वर स्तवन याद आया और खुश हो कर उसने कुंभारको बुलाया और उसको दश रुपिया इनाम दिया कुंभार खुशी हो कर घर चला गया कुंभारका मस्तीका अनुभव उन दिनसे कुच्छ कम होने लगा-बस उन दिनसे कुंभारको रात्रीको विचार आया और घरमें कुच्छ अवाज़ मालुम पडे तो स्त्रीसे पुकार करके कहे देख कोई आया की रूपिया ले गया. वह इसी तरह सारी रात्री स्त्रीपुरूषको रूपियाकी रक्षा करने में पसार हुई सुबह हुई तब वह दोनो स्त्रीपुरूष कार्यमें लगे परन्तु शरीर रात्रीभर जागने से कष्टवाला बना था अतः अपना काम कुच्छ हुआ नही. कुंभार सारा दिन चिन्तातुर बनकर बेठ रहा उसने सोचाकी हमारा आनंद क्यौ नष्ट हुवा तब विचार उत्पन्न हुआ कि रूपियाकी रक्षा और उनमें बाशना बनाने के कारण यह हाल हुआ तब वह दस रूपिये हाथमें लेके शेठ पास आया और उसको कहाकी शेठजी आपही इस रूपियोंको रक्खो हमको नहि चाहिये. शेठी बोले भला क्यौ आप मना करते है तब कुंभार बोला शेठजी इससे हमारी रात्री महाकष्टसे गई इससे पहेले हमको चार आना मिलता था और वह दशामें हमको आनन्द बहत था वह एक दिन में नष्ट होगया अतः हमको पैशाकी जरूर नहि है परन्तु हमारा आनंद नष्ट न होना चाहिये शेठ भी समज गयाकी हमारी सम्पति उतने वैभव में हमको आनंद नही देती है इसका कारण वासना क्षय नही अतः सब उपाधीमें हैरान करती है. वैहे तब लक्ष्मी और सब कर्ममें से आशक्तिको छोडकर इश्वरमें मस्त बना वासनाको हरा कर शुद्ध कर्म करने लगा और जीवनमुक्त बना अतः सच्चासुख केवल वासनाको छोडने से होता है।
SR No.522503
Book TitleJain Dharm Vikas Book 01 Ank 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichand Premchand Shah
PublisherBhogilal Sankalchand Sheth
Publication Year1941
Total Pages50
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Dharm Vikas, & India
File Size9 MB
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