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જૈન ધર્મ વિકાસ
॥ सच्चासुख ॥
लेखक:--मुनिश्री कुशलविजयजी, अमदाबाद. आधुनिक समयमें प्रत्येक मनुष्य सुखके लिये प्रवृत्ति करते है. सुखको प्राप्त करने के लिये बहुत प्रयास करते है, परन्तु वें सुखकी कल्पना अपनी अपनी बुद्धिसे पृथक पृथक करते है, और वह कौन हेतुका आश्रय करनेसे जीवन में आनंद और आत्माकी पूर्णमस्ती देता है. इस विषयमें बहुत व्यग्र बनते है ।
सुखका स्वरुप स्वसंवेद्य, धर्मकी बाधारहित आत्मानुकुल व्यापारको तत्ववेताए कहते है उनका संपूर्ण अनुभव इच्छाशक्तिसे तटस्थ रहकरके स्वकर्मानुसार प्राप्त होने वाले सुखदुःखादि व्यापारको भोगते हुवे धर्मक्रिया करने से होता है धर्मकी स्खलना न बने और आत्माकी उन्नत्ति सिद्ध हो उनकोसच्चा सुखकहते है
जनता अपने अपने कर्तव्य कर्ममें भी इच्छित पदार्थोका प्राप्त करना और उनका फलका अनुभव करना इस प्रकार शरीरधर्मको केवल बढाने वाली इच्छाको पूर्ण करना उनको सुखरुपसे चहाती है उनमें वे बहुत भ्रमयुक्त हो करके ज्ञानदशामें और जीवनमुक्तिका आनन्दानुभवमें सच्चासुखसे वञ्चित होता है। आजकल हरेक स्थानमें यह ही दृष्टीगोचर होता है की मनुष्ये कोई प्रतिष्टा, कोई मनोरथकी सिद्धि, कोई शरीर धर्मका पूर्णसुख इत्यादिक विविध वासना भंडारसे व्याप्त हो करके सब सुखकी और जा रहे है।
वाशनाको क्षय किये बिना अपनी इच्छाके तरङ्गकी साथ धर्मकर्मको इधर उधर हिलाना उसमें सच्चासुख मनुष्य प्राप्त नही कर शकता सुख आनंदात्मक है वह क्षणिक नहि है सर्वदा सर्वभावमें उसका स्वरुप आनन्दरुप है. अतः महात्माएं सुख प्राप्त करने में कारणभूत समता, निरहंकार, ज्ञान इत्यादिक उदारवृत्तिको बढानेवाले आत्माको उन्नतिमें ले जानेवाले क्रियाकांडको मान्य कीये है।
धर्मकर्म भी आत्माकी उन्नति में कारण है अतः उनमे भी वासनाको मुख्य बनाकर जो कर्म केवल ज्ञानकी प्राप्तिमें और आत्माकी उन्नति में कारण है. उनको मृगजलवत् दुरसे सुखआभ्यंन्तर क्लेशयुक्त पालन करना वो ठीक नहीं है क्योंकि ज्ञानप्राप्ति और आत्माकी उन्नति उनसे सिद्ध नही होती है।