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વિરોધી મિત્રે કે પ્રતિ विरोधी मित्रों के प्रति "मुनिपंचक” का संक्षिप्त स्पष्टीकरण"
लेखकः-मुनिराजश्री अशोकविजयजी सच्चाइ छिप नहीं सकती, वनावट के उसूलों से कि खुशबू आ नहीं सकती कभी कागज के फूलों से ॥ खिलौने खांड के बनकर, नहीं जगमें बने है हम ।
चबाना जिनका मुश्किल है, वे लोहे के चने हैं हम ॥
यह तो निर्विवाद सिद्ध है कि प्रकृति का पक्ष सदा सत्य की ओर ही झुका रहता है। संसारमें अनेक स्वार्थ के वशीभूत होकर सत्यवस्तु की सत्यता से जगत् को वंचित रखने का प्रयत्न करते है किंतु वास्तविकता भी कही छिप सकती है ? कदापि नहीं। भला, रुईमें आग को कितनी भी छिपाकर रखो किंतु वह शीघ्र ही प्रज्वलित रुपमें प्रत्यक्ष आही जाती है। ___सत्य तत्व का यथार्थ प्रचार करने के हेतु अनेक कर्मवीर महा पुरुष हृदय से घोर प्रयत्न करते है किंतु उसमें बाधक एवं अपशकुन स्वरूप अनेक अल्पमातिजन उस सरल एवं सुगम पंथ को कटकाकीर्ण और दुर्गमसा बना देते हैं यहां तक कि दूसरे का अपशकुन करने के वास्ते अपनी नाक कटवानेमें भय संकोच नहीं करते । इस प्रकार दुष्ट लोग कितनी भी अपनी दुष्टता का परिचय दे तथापि न्याय एवं नीति का मार्ग उनके द्वारा कदापि अवरुद्ध नहीं हो सकता है। सांच को आंच नहीं लग सकती है। रत्न की प्रभा अल्प नहीं हो सकती है, खरे सौटंची सुवर्णमें कलंक नहीं लग सकता है। अर्थात् ज्ञान और वितरागताकी पराकाष्टाही मोक्ष है यदि गंभीरतासें एकांत शांतिपूर्वक मनन किया जायतो सच्चा आत्मामें ही है बाह्यपदार्थोमें नहीं तथापि हमारी प्रवृति वर्तमान भौतिकके सुखके लिये होती है अतः यह प्रवृति हेय है किन्तु जब अध्यात्मोन्मुखी बन कर आत्मस्वरुपको पहिचाननेके लिये प्रवृति करेंगे । तभी सच्चे सुखका अनुभव होगा। वह सुख दुसरी जगह पर ढुढनेसे नही मील शकता है अपने ही पासमें है किन्तु मोहान्धता कुवासना के कारण उसको पहिचान नहीं शकते है।