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________________ ७० જૈન ધર્મ વિકાસ वास्तविकसुख कहां है ? लेखकः-भिक्षु भद्रानंदविजयजी (शीवगंज) इस अनादी अनंत संसारमें अनंतजीव परिभ्रमण करते वे सर्व जीव सुखको चाहते है किन्तु उस सुखकी कल्पना सवजीवोंकी सदश नहीं है, आत्मविकासके तारातभ्यसे उन सुखोंके संक्षेपमें दो विभाग हो शकते है, पहिले विभागमें अल्प विकासवाले जीव है, उनके सुखकी कल्पना बाह्यपदार्थमें ही होती है, और दुसरे विभागवाले जीवोंकी कल्पना बाह्यभौतिक साधनोंकी सम्पत्तिसे ईन्द्रियजन्य सुखको सुख न मान कर केवल आत्मगुणोकी सम्पत्तिमें ही सुख मानते है । इन दोनो वर्गवालोंके माने हुए सुखमें वही विशेषता है की एफका सुख पराधीन दुसरेका स्वाधीन, पराधीन सुखको काम और स्वाधीन सुखको मोक्ष कहते है । यही दो वस्तु जीवके लीये साध्यरुप है और इन्ही दोनो वस्तुकी सिद्धिके लीये धर्म और अर्थ ये दोनों सुख साधन है क्योंकि साधन के बिना साधकरुप आत्माको साध्यकी नही हो शकती अतः उपरोक्त साधनीय दो विषयोमें से वास्तवमें मोक्ष ही सुखागार होने से मुख्य साधने योग्य है, क्योंकि कामजनित सुख क्षणभंगुर कल्पित और आरोपित है इसके लीये किया जाता परिश्रम विशेष फलदायी नही है, और यह सुख आरोपित है, इसके लीये किया जाता परिश्रम विशेष फलदायी नही है, और यह सुख आरोपित इस लिये है कि यह पराधीन है, क्योंकि जीवको कामजन्य सुखमें इन्द्रिये, विषय और विषयोके साधनोंकी आधीनता अवश्य ही हुइ होती है और यह सांसारिक सुख इच्छाओंकी तृप्तिसें होता है और इच्छाओंका स्वभाव ही ऐसा है की एक पुरी हुइ न हुइ इतने में अनेक इच्छाए उत्पन्न होती है, वही मोक्षका सुख सच्चासुख है । ऐसा मोक्षसुखकी प्राप्तिके लीये जीवको धर्म साधन, सत्संगत, अध्यात्मिक शास्त्रवांचन, योगाभ्यासादि निमितोसे प्राप्त करना चाहीये। यद्यपि आत्मा गुणी है धर्म उनका गुण है जैसे धमी और धर्म ये दोनो एकान्त भिन्न नहीं है किन्तु परस्पर संबंधित है अर्थात् अभिन्न संबंध है परंतु आत्माके साथ अनंतकालसे रागद्वेषादि कमोंका सम्पर्क होने से जगतमें रहे हुए जडपदार्थों पर चेतनकी (आत्माकी) ममत्ववासना (भावना) भ्रांतिसे ही होती है । उसने आत्मस्वरुपको आच्छादित कर रक्खा है उस आवरणको दुर करनेके लीये आत्मिक शुद्धाध्यवसायोंकी पूर्ण आवश्यकता रहती है। जब तक आत्माके शुद्ध स्वरुप पर इन भौतिक सुखोका प्रभाव है तब तक वास्तविकसुखसे जीव बहुत दुर रहता है । वास्तविकसुख बंधकारणोके अभाव होनेपर ही होताहै
SR No.522502
Book TitleJain Dharm Vikas Book 01 Ank 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichand Premchand Shah
PublisherBhogilal Sankalchand Sheth
Publication Year1941
Total Pages36
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Dharm Vikas, & India
File Size5 MB
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