________________
ચારિત્રકી મહત્તા उत्कृष्टता को प्रमाणित करता है। इसके विपरीत भोगादि सामग्रीके अभावसें जो त्याग कीया जाय उसे शास्त्रकोविदोंने अत्यागी ही कहा है, उदाहरणार्थ देखियेः--
' वत्थ गंधमलंकारं, इत्थीओ सयणाणि य ।
अच्छंदा जे न भुजंति, नसे चाइत्ति वुच्चइ । अर्थात्-जीसको वस्त्र, गंध, अलंकार, स्त्री, शयनासनादि सामग्री उपलब्ध न हो और उसका अनिच्छासे त्याग करे तो वह वास्तवमें सच्चा त्यागी नहीं है। त्यागीकी विशेषता इच्छापूर्वक त्यागमें ही है इसी प्रकार यदि भोगादिका भी इच्छापूर्वक त्याग न किया जायगा तो वे भी हमारे को त्याग कर अवश्य चले जावेंगे। सच्चे त्यागसे ही शुद्ध वैराग्यभावोंकी उप्तत्ति होकर चारित्रमार्गमें प्रवृति होती है।
हमें यह उत्तम मानवभव जीसकी प्राप्ति हेतु देवगणभी सतत लालापित रहते है और जीसकी श्रेष्टताका गुणगान कर अपने मुखारविंदको पवित्र बनाते हुवे अपने को कृतकृत्य समझते है। पूर्व चारित्र स्वरुप सुकृतसंचयसे ही प्राप्त हुआ समझना चाहीये । एसे अमुल्य नरतनरत्नको पा कर भी यदि चारित्रधर्मकी ओर प्रवृत्ति न होगी तो यह निःसंदेह समझ लेना चाहिये कि फीर कीसी भी भवमें इस ओर प्रवृति होना दुष्कर साही है। मानवभवकी सार्थकता चारित्रप्रवृति पर ही निर्धारित है क्योंकि कर्तव्याकर्तव्य, हिताहित, अनिष्टानिष्ट एवं धर्माधर्म के निर्णयका भार इसी पर अवलंबीत है। कितनेक अविवेकी पुरुषो भौतिकसुखोको ही जीवन सर्वस्व समझ कर आध्यात्मिक प्रवृतिकी ओर उपेक्षा करने लग जाते है किन्तु उनकी महाप्रवृति आत्मविनाशक या आत्मघातिका ही कही जा शकती है क्योंकि इससे आत्मस्वरुप पर कुठाराघातका प्रसंग आ जाता है और यथार्थ तत्वसे दूर रह जाता है । यथार्थत्वसे विमुख रहना ही चारित्र पर प्रहार करना है। चारित्र पर प्रहारही आत्मविकासकी प्रवृतिका अवरुद्ध करना है
___ अतः लीखनेका निष्कर्ष यही है किः-चारित्रांतर्गत नानाविध दिव्यशक्तियां एवं विविध लब्धीयां सन्निहित है अम समझकर पौद्गलिकसुखोकी भ्रांतिमें वास्तविक चारित्रसुखकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिये । चारित्रमार्गमें प्रवृत्ति ही वास्तविक सद्प्रवृति एवं सुखात्मिक प्रवृति है। वास्ते:----
वरंभे अप्पा दंतो, संजमेण तवेण य। माहं परेहिं दम्मंतो बंधणेहि वहेहिय ॥
ॐ। शांतिः शांतिः शांति ।