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જૈન ધર્મવિકાસ
वीरप्रभुने संयमसम चारित्रका फल बतलाते हुए उतराध्ययन में २९ वें अध्ययनमें फरमाया है कि:-'संजमेणं अणण्हमत्तं जयायइ' अर्थात् संयमरुप चारित्रसें अनाश्रवत्वभाव उप्तन्न होता है। अनाश्रवत्वसे विकास प्राप्त कर संवर एवं निर्जराभाव यावत् मोक्षपद प्राप्त हो शकता है। अतः निष्कर्ष यही है कि आत्मकल्याण, आत्माभ्युदय एवं जीवनविकासकी भावना चारित्र धर्मान्तर्गत ही है। इसके अतिरिक्त अन्य भौतिक भाव एवं बाह्यसुखोप्तादक साधन आत्मा के अधःपतन के ही निमित्तभूत है। सुखसाधनों का आवासस्थान आत्माही है।
जिस प्रकार शरीर के लीये वीर्यशक्ति अत्यंतावश्यक और तेजगुण प्रदायिका है इसके अभावमें मानवजीवन शून्य माना जाता है, उसी प्रकार चारित्रका महत्व भी जीवनमें सर्वोत्कृष्ठ है । इसके बिना मानवमें मानवत्व, जीवनमें जीवत्व, आत्मामें आत्मत्व कदापि नहिं रहा शकता है। चारित्रमें जो अद्वितीय शक्ति विद्यमान है वह महेन्द्रो और नरेन्द्रोंमें कोटिशः प्रयत्न करने पर भी नहीं आ शकती है। नरेन्द्रभण यदि चारित्र संपन्नपुरुषको मस्तक झुकाते तो इसमें आश्चर्य ही क्या है ? जब की सुराधिपति भी उनको वंदन नमस्कार कर अपने को कृतार्थ समझते है ! वास्तवमें जो दिव्यात्मा जो दिव्य ओज और जो वचनप्रभाव चारित्रीपुरुषका जनसमुदाय पर पड़ शकता है उतना इतरका नहीं। शक्रेन्द्रोंकेआसनको विचलित करनेकी शक्ति भी चारित्रमें ही है।
जब यह बात निर्विवादसिद्ध है कि चारित्रमें विलक्षण एवं दिव्यशक्ति विद्यमान है तब इन भौतिक सुखोको नश्वर एवं धोखेबाज समझ कर आत्मकल्याणकारी चारित्रकी
ओर प्रवृति क्यों न करनी चाहिये ? यदि आप इन भौतिकसुखोकी ओरसे स्वेच्छापूर्वक अपना मुख न मोडेंगे तो यह निश्चित समझे कि ये स्वयं ही एकन एकदिन विश्वासघात कर आपको छोड़ कर चले जायेगें । अतः अनिच्छापूर्वक त्यागकरनेकी अपेक्षा स्वेच्छासे त्याग करना ही भविष्य हेतु हितकर है जीससे पश्चात् विषादका अनुभव न करना पडे। त्यागका महत्व बतलाते हुए शास्त्रकार अपने दशवैकालिक सूत्रमें फरमाते है किः
जेय कंते पिए भोए, लद्धे वि पिट्ठि कुव्वइ ।
साहीणं चयइ भोए, से हु चाइ त्ति कुम्वइ ।
अर्थात–सच्चा त्यागी वही है जिसको कांत एवं प्रियभोग उपलब्ध होने पर भी उन स्वाधिन वस्तुओंका त्याग कर देवे ।
ताप्तर्य यह कि स्वाधिन भोगादि वस्तुसे स्वेच्छापूर्वक विरक्ति भावनाही त्यागकी