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________________ : -- .. . ચારિત્રકી મહત્તા ६७ है। ज्यों ज्यों जीव इसके सन्निकट तथा अभिमुख होता जाता है त्यों त्यों पौद्गलिकसुख प्रवृत्तिसे पराङ्मुख हो कर आध्यात्मिकसुखके अगाधोदधिमें प्रविष्ट हो वास्तविकसुखपीयूषपयपानद्वारा किंचित् वास्तविकसुखका यथार्थ अनुभव करता है । इसीकी उत्कृष्टावस्था स्फटिकस्वच्छ आत्माके वास्तविक स्वरुपको प्रकटानेमें पूर्ण सामर्थ्यवान् है। इस वस्तुतत्त्वके रहस्यकी एवं आदर्शचारित्रके महत्वकी अनभिज्ञतासे अनेक सांसारिक प्राणी सांसारिक वैषमिक सुखो को ही सच्चेसुख मानकर तदनुकुल प्रवृत्ति करते है किन्तु अशाश्वत एवं अध्रुव इन विषयोमें यथार्थ सुखका वास्तव्य स्वल्पांशोमें भी स्वीकार करना प्रमाणविरुद्ध है । शास्त्रकारेके शब्दोमें ही देखिये किः जहा किंपाग फलाणं, परिणामो न सुंदरो। एवं भुत्ताण भोगाणं, परिणामो न सुंदरो ॥ जैसे किम्पाकवृक्षका फल खाने पर तो मधुर प्रतित होता है किन्तु उसका वास्तविक एवं अंतिम परिणाम प्राणनाशक, भयावह एवं अनिष्टकारी ही होता है। उसी प्रकार सांसारिक विषयविकार भी बाह्य द्रष्टिबिंदुसे क्षणिक सुखोत्पादक आनंदकारी एवं रमणीयसे ज्ञात होते है किन्तु इनके मुलमें आत्मकल्याणका तत्त्व लेशमात्र भी सन्निहित नही है। भोगादि पौगलिक सुखोका संबंध शरीर से है। शरीर भी नश्वर एवं अशाश्वत है । अतः इन अशाश्वत वस्तुओमें वास्तविक एवं शाश्वतसुख मान लेना वस्तुतत्त्वसे दुर भागना नहीं तो और क्या है ? क्योकि जब तक विषयप्रवृत्तिसे विरक्त होकर हृदयांतर्गत वैराग्यभावांका प्रादुर्भाव न होगा तब तक चारित्रकी और झुकनेमें प्रवृत्ति ही नहीं हो शकती। चारित्र के शास्त्रोमें दो प्रकार बतलाये है:-एक द्रव्य चारित्र और दुसरा भावचारित्र, द्रव्यचारित्रका संबंध बाह्यक्रिया, प्रवृति, आचार, और उपकरण आदिसे है। इसके विपरीत भावचारित्र आत्मासे ओतप्रोत हो रहता है। जब तक द्रव्यके साथ भावचारित्र न हो तब तक जीव सद्मार्ग एवं असद्मार्गका निर्णयकर प्रवृति करने में भी प्रायः असमर्थ साही रहता है। द्रव्यचारित्रकी भी महत्ता है अवश्य, और वास्तवमें होनी ही चाहिये, किन्तु उसकी उतनी महत्ता नहीं जीतनी की भावचारित्रकी है। हां, जहां द्रव्य एवं भाव दोनोंका सुंदर सामंजस्य है वहां जीवके आत्मकल्याणमें किंचित् भी संदेह को स्थान नहि रहता है। द्रव्य बाह्याकृतिसम शरीर है तो भाव तदन्तर्गत आत्मवत् है । इसका यह मन्तव्य नहीं की द्रव्यचारित्र अनावश्यक है। दव्यचारित्रकी भी उतनी ही आवश्यकता है जीतनी ही भावचारित्रकी। अतः द्रव्य चारित्र भी भावपुष्टिहेतु अत्यंतावश्यक है।
SR No.522502
Book TitleJain Dharm Vikas Book 01 Ank 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichand Premchand Shah
PublisherBhogilal Sankalchand Sheth
Publication Year1941
Total Pages36
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Dharm Vikas, & India
File Size5 MB
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